February 28, 2016

स्वीकार्यता पर एक पुस्तक : अध्याय 4 - संघर्ष से मुक्ति



संघर्ष से मुक्ति

स्वीकार्यता हमें सिखाती है कि अब हकलाहट से संघर्ष करने की जरूरत नहीं। समय आ गया है कि आप हकलाहट को समझे, हकलाहट से दोस्ती करें, हकलाहट से प्यार करें। जब आप ऐसा करेंगे तो पाएंगे कि अब तक हकलाहट के साथ आपके संघर्ष का कोई मतलब नहीं था।

हकलाहट को सहजता से स्वीकार करने का एक और उपाय है - अपनी हकलाहट पर खुद हंसना। अपने परिवार, मित्र या ऑफिस में कोई ऐसी रोचक बात या विनोदपूर्ण बात या स्थिति पैदा करना की आपको और दूसरे लोगों को हकलाहट पर हंसी आ जाए। ऐसा करना अपने जख्म पर खुद ही नमक छिड़कने जैसा लग सकता है, परन्तु हकलाहट के तनाव को दूर करने का यह एक अच्छा जरिया है।
 
हकलाने वाला व्यक्ति अधिकतर समय एकान्त और तनाव में रहता है। हंसना और मुस्कुराना छोड़ देता है। हमेशा उसके चेहरे पर 12 बजे रहते हैं। हम हकलाने वाले खुद ऐसे लोगों के ज्यादा करीब जाना पसंद करते हैं जो मिलने पर मुस्कुराते हैं, हमेशा प्रसन्न रहते हैं। मुस्कुराहट एक ऐसा जादू है जिससे हम आसानी से तनावमुक्त हो सकते हैं, और लोगों को अपना बना सकते हैं। खुद मैं कई बार हालत के मुताबिक अपने चेहरे पर मुस्कुराहट और हंसी नहीं ला पाता। मैं सालों तक इसी कुंठा में जीता रहा कि हकलाने के कारण मुझे विनोदपूर्ण बात कहने, हंसने का अधिकार नहीं। खिखिलाकर हंसूगा तो पता नहीं लोग क्या सोचेंगे? स्वीकार्यता ही हमें इस भ्रम से बाहर निकालने में मदद करती है। पता नहीं लोग मेरे बारे में क्या कहेंगे? दूसरे लोगों की चिन्ता करते-करते हम खुद को ही भुला देते हैं। 

सच कहें तो दूसरे लोगों ने हमारा कोई उतना बड़ा नुकसान नहीं किया है, जितना खुद हमने अपना किया है। आधारहीन बातों को अधिक महत्व और समय देकर। बस, एक सीधा रास्ता है - मुस्कुराकर कहना- हां, मैं हकलाता हूँ। फिर देखिए कमाल। आपके साथ ही दूसरे लोगों के चेहरे चिंतामुक्त हो जाएंगे।

मैं विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (विकलांग) की शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहा हूँ। इस दौरान मैंने कई अभिभावकों को देखा है जो अपने बच्चे के अच्छे इलाज, देखभाल और शिक्षा के लिए काफी समर्पित होकर प्रयास कर रहे हैं। विकलांगता के बावजूद उन्होंने किसी भी मोड़ पर हार नहीं मानी है। वे डटकर हर चुनौती का सामना कर रहे हैं। मैं भोपाल के एक ऐसे परिवार को जानता हूँ जिनकी 17 साल की बेटी बहुविकलांग (एक से अधिक विकलांगता का होना) है। पति और पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं। कई बार माँ अपनी बेटी को कार में अपने साथ लेकर ऑफिस चली जाती हैं, क्योंकि घर पर देखभाल करने वाला कोई नहीं होता। कहने का मतलब यह है कि हम चाहे कितनी भी कोशिश कर लें, अपने जीवन की चुनौतियों को एक दिन स्वीकार करना ही पड़ता है, उसका सामना करने के उपाय खोजने ही पड़ते हैं। हम चुनौतियों से भाग नहीं सकते।

जब मैं भोपाल में रहकर कॉलेज की पढ़ाई कर रहा था तो चावल खरीदने के लिए एक दुकान पर जाया करता। वहां पर 2 भाई चावल की दुकान चलाते थे। छोटा भाई हकलाता था। बार-बार ग्राहक चावल की अलग-अलग किस्मों के भाव पूछते, वह हकलाकर बताता। लेकिन कभी मैंने उसके चेहरे पर उदासी नहीं देखी। यह निश्चित ही इस बात का प्रमाण है कि कई लोगों के लिए हकलाहट कोई बाधा नहीं है।

1 comment:

Satyendra said...

स्वीकार्यता पर जितना भी लिखा जाए - कम है ! क्योंकि ये एक मुश्किल अवधारणा है.. समझ कर भी हम भूल जाते हैं.. समझ कर भी हम गलत समझ लेते हैं..! अक्सर इसे हम अपने से अलग एक तकनीक या लक्ष्य के रुप मे देखते हैं.. जबकि सच तो ये है की ये हमारा अभिन्न स्वरुप है. अगर हमें भूख लगी है तो हम में से कितने लोग आराम से उसे नकार के ये कह पाएंगे कि - नहीं ये पिज़्ज़ा वापस ले जाओ, मुझे भूख नहीं लगी है..?

उसी तरह जब हम हकलाने को और उस से होने वाली असुविधा को नकारने के बजाय स्वीकारते हैं, उस से मुह चुराना बंद करते हैं.. तब हमारे अन्दर का 99% संघर्ष (जो हमने खुद पैदा किया था) ख़त्म हो जाता है.. आगे की राह आसन हो जाती है.. कम्युनिकेशन पर काम करने के लिए हम आज़ाद हो जाते हैं..
धन्यवाद् अमित..
ऐसे ही लिखते रहे ..