January 30, 2014

हकलाहट को स्वीकार कर खुलकर हकलाना सीख लिया!

हकलाहट को लेकर हमेशा शर्म, संकोच और अपराधबोध की भावना से घिरा रहने के बाद टीसा ने मुझे हकलाहट को खुलकर स्वीकार करने की हिम्मत दी। इसके साथ ही यह ज्ञान भी मिला कि हकलाना क्या है, हम क्यों हकलाते हैं और सबसे बड़ी बात हकलाहट का सही समाधान क्या है?

आज भी जब हकलाहट होती है तो मन में यह विचार नहीं आता कि कोई मेरी हकलाहट के कारण मुझे नजरअंदाज कर रहा है, मेरा मजाक उड़ाया जा रहा है।

जब मेरे दृष्टिकोण में बदलाव आया तो मैंने महसूस किया कि वास्तव में समस्या या कमी मेरे अन्दर ही थी। मैं तो आज तक बिना मतलब दूसरे लोगों को दोष देता रहा। आखिर मैं अगर सही तरीके से संचार नहीं कर सकता तो इसमें दूसरे लोगों को दोष क्यों दूं? अगर मैं खुद ही अपनी हकलाहट के बारे में दूसरे लोगों से आज तक खुलकर बातचीत नहीं कर पाया, हकलाहट को स्वीकार ही नहीं कर पाया तो इसमें दूसरे लोगों की क्या गलती।

मैंने हकलाहट की स्वीकार्यता के बाद यह पाया कि हमें समाज के लोगों के प्रति, अपने परिवार, दोस्त और रिश्तदारों के प्रति एक पाीजीटिव सोच अपनाने की जरूरत है। हम क्यों दूसरों को अपना दुश्मन मानते रहें? यह कतई उचित नहीं है।

कल तक जो काम मुश्किल लगते थे, आज वो बहुत आसान हो गए हैं। शापिंग करना, बिल जमा करने जाना, रेल्वे रिर्जवेशन करवाना, बिल जमा करना, सब्जी खरीदना, कोई दरवाजे पर घंटी बजाए तो सबसे पहले घर से बाहर निकलकर मिलना, घर आए मेहमानों को नमस्कार कहना, उनसे बातचीत करना। पहले मैं इन सब कामों को करने से बचता था और आज यह सब करने में बड़ा आनन्द आता है।

एक दिन टेन में एक नेत्रहीन युवक को देखा। मूंगफली बेंच रहा था। स्टेशन आने पर एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे पर उतरकर जाता। यह असंभव सा लगने वाला कार्य भी उस नेत्रहीन युवक की दिनचर्या बन चुका था। वास्तव में मन की रोशनी उसे यह काम करने की प्रेरण दे रही थी।

सच कहें तो हकलाहट के बाद हमारा जीवन खत्म नहीं होता, बल्कि एक नया जीवन शुरू होता है। हमें शब्दों के महत्व, वाणी के सदुपयोग पर ध्यान देना चाहिए। क्या आपने कभी देखा है कि टेन में दो लोग बैठे हों और दोनों कई घंटों तक कोई बातचीत न करें। एकदम शांत रहें? हां, मैंने देखा है कई बार विदेशी यात्रियों को। क्या हम भारतीय हमेशा बोलते रहने को ही अपनी योग्यता समझने की भूल तो नहीं कर रहे हैं।

मैंने एक किताब में पढ़ा था कि अगर 1 शब्द से काम चल जाए तो 2 शब्द न बोलें। इन सब उदारणों से हम यह आसानी से समझ सकते हैं कि धाराप्रवाह बोलने रहना ही कोई बहुत बड़ी योग्यता नहीं है। जरूरत है सही समय पर सही या कहिए सार्थक संचार/संवाद करना।

मेरा यही मानना है और अनुंभव भी है कि आप कितना भी हकलाते हों, अगर आप कोशिश करें तो दूसरे लोगों के समझने लायक संचार/संवाद जरूर कर सकते हैं।

- अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
09300939758

2 comments:

Satyendra said...

Some days ago, I came across a very interesting observation by a pws : many techniques work thru underlying mechanism of Acceptance.. while you are practicing techniques , you are also strengthening your sense of Acceptance.. which just means - OK, I speak a little differently and I am OK with it..let's carry on with life..
Finally we have to choose between Acceptance and - guess what? - DENIAL..
Thanks Amit for sharing .. and please forgive me my lack of Hindi typing skills..

ABHISHEK said...

धन्यवाद अमितजी। आपके लेखन में हमेशा tisa का सारांश महसूस होता है.