हम सबने शतुरमुर्ग की कहानी सुनी है। .. रेगिस्तान में जब कभी शतुरमुर्ग को खतरा महसूस होता है तो वो अपना सिर रेत के अंदर छिपा लेता है। .. ऐसा करने से उसे लगता है कि जैसे वो कुछ देख नहीं पा रहा है , वैसे ही दूसरे भी उसे देख नहीं पा रहे हैं और वो सुरक्षित है। ...हालाँकि ऐसा होता नहीं है। ... सभी को शतुरमुर्ग दिख रहा है - ये बात शतुरमुर्ग मानने को तैयार नहीं होता है। ...
हमारी हकलाहट भी बहुत कुछ शतुरमुर्ग की सोच की तरह है। ... ऐसा उन हकलाने वालों के साथ अक्सर होता है जो ये सोचते हैं कि उन्हें बहुत ज्यादा हकलाहट नहीं होती है, और वे उसे छिपा सकते हैं । कई युवा हकलाने वाले लोग इस बोझ के नीचे दबे हुए हैं कि अपने परिवार के सदस्यों , इष्ट-मित्रों को कैसे समझायें कि वे हकलाते हैं। .... कुछ लोगों का कहना है की उन्हें पता है कि वे हकलाते हैं, पर उनके परिवार-जन और मित्र ये नहीं मानते। ...
उनकी ये धारना सच भी हो सकती है। लेकिन अक्सर हम पाएंगे कि हम अपने जीवन में जिन लोगों के संपर्क में ज़्यादातर आते हैं , उन्हें ये पता है कि हम हकलाते हैं। .. ऐसा हो सकता है कि ये लोग हकलाहट के बारे में हमसे बात करने में सहज महसूस नहीं करते हों , या उन्हें ये चिंता हो की हमें बुरा लग सकता है। ...
तो अब समय आ गया है की हम अपने सिर को रेत से बाहर निकालें। अपने करीबी लोगों से खुल कर अपनी हकलाहट के विषय में चर्चा करें। उन्हें ये बतलायें की हकलाहट हमारे जीवन में बहुत छोटी चीज़ नहीं है। .. उन्हें ये समझाएं कि हमारे जीवन में हकलाहट के कारण हमें किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। यदि हम हकलाहट को स्वीकार कर लें , हमारे परिवार-जन हमारी हकलाहट को स्वीकार कर लें - तो हमें काफी मदद मिल सकती है। हम इस विषय पर खुल कर बात कर सकते हैं और हमारी घुटन कम हो सकती है। हम अपनी हकलाहट से भागने की जगह उसके कुशल-प्रबंधन पर ध्यान दे पाएंगे और अपनी संचार-कौशल को बेहतर बना पाएंगे।
2 comments:
हुत अच्छे उदाहरण के साथ आपने समझाया है। और इस स्वीकार करना ही पहला और सही रास्ता है.
धन्यवाद् अभिषेक.. बहुत सही उपमा है ये.. सिर्फ हकलाने में ही नहीं बल्कि जिंदगी के अन्य बहुत से क्षेत्रो में हम हीक यही करते हैं : मुह मोड़ कर, आँखें चुरा कर उम्मीद करते हैं की समस्या अपने आप हल हो जाएगी !!
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