March 21, 2016

अभी तो मैं चलना सीख रहा हूं।


पिछला सप्ताह मेरे लिए बहुत व्यस्त और चुनौतीपूर्ण रहा। 3 दिन लगातार ट्रेनिंग प्रोग्राम आयोजित करवाने की जिम्मेदारी मेरी थी।

यह ट्रेनिंग विशेष आवश्यकता वाले बच्चों के अभिभावकों के लिए थी। ऐसे अभिभावक जो बहुत गरीब है, मजदूर हैं, गांवों में रहते हैं, जिनके पास रोजी-रोटी का एक ही साधन है, खेतों पर काम करना। उनके पास अपने बच्चों के लिए अधिक सोचने और काम करने का समय नहीं है।

खैर, ट्रेनिंग का पहला दिन आया। इस बार मैंने एक नया काम किया। ट्रेनिंग देते समय एक-एक प्वाइंट को ब्लैकबोर्ड पर लिखता रहा, बीच-बीच में रीजनल लैग्वेज इस्तेमाल करता रहा, जिससे पैरेन्ट्स अच्छे से मेरी बात को समझ पाएं।

बोलते समय हकलाया, फिर भी कभी हकलाहट पर ध्यान नहीं दिया। मेरे लिए महत्वपूर्ण था ट्रेनिंग को अच्छे से करवाना, इसलिए हकलाहट की याद ही नहीं आई। मैंने कभी सोचा नहीं कि मैं हकलाता हूं, मेरा क्या होगा, कैसे बोलूंगा सबके सामने। जो मन में आया बस बोलता रहा।

पैरेन्टस की तरह-तरह की समस्याएं थीं, इसलिए कुछ लोगों से पर्सनल डिस्कशन किया।  तीन दिन तक ट्रेनिंग चलती रही। तीनों दिन अलग-अलग जगहों पर।

इस ट्रेनिंग में मैंने अच्छा संवाद करने के साथ ही यह भी सीखा की कैसे किसी इवेन्ट को प्लानिंग के साथ आर्गेनाइज करना है, दूसरे लोगों से कैसे काम करवाना है।

मैंने महसूस किया कि हम सोचते हैं कि हम हकलाते हैं, पब्लिक स्पीकिंग कैसे कर पाएंगे? लेकिन सच इसके उल्टा है। जो लोग नहीं हकलाते हैं, वे भी दूसरों के सामने बोलने से कतराते हैं, बोल नहीं पाते, प्रोजेन्टेशन नहीं दे पाते।

मैं धाराप्रवाह नहीं बोल पाता, लेकिन इस बात का संतोष है कि संतोषजनक तरीके से संवाद कर पाता हूं। मुझे लगता है कि पहली ही बार में धाराप्रवाह बोलने की इच्छा रखने से अच्छा है कि धीरे-धीरे चलना सीखना। एकांत में बैठे रहने, घूट-घुटकर जीने से अच्छा है लगातार छोटे-छोटे प्रयास करते रहना।



1 comment:

Satyendra said...

बहुत सुन्दर .. काम पे जब सचमुच ध्यान केन्द्रित हो तो सारी बातें गौण हो जाती हैं ..
जीवन के प्रति नजरिया असली मुद्दा है ; क्या हम वास्तव में बदलाव चाहते हैं ? उसके लिए काम करने को तैयार हैं?
कार्यशाला का सञ्चालन बहुत बढ़िया तरीका है, अपने संवाद कौशल को बेहतर बनाने का..
धन्यवाद्, अपने विचार बाँटने के लिए..