February 22, 2016

स्वीकार्यता पर एक पुस्तक : अध्याय 1. स्वीकार्यता - हमारे अन्दर



साथियों, स्वीकार्यता पर मैंने एक छोटी पुस्तक लिखने का विचार किया था, और आज यह साकार रूप ले रहा है। पुस्तक का शीर्षक - "स्वीकार्यता, एक खुला आसमान" है। यहां किताब का पहला अध्याय आपसे साझा कर रहा हूं। पुस्तक को अधिक उपयोगी, रोचक एवं पठनीय बनाने के लिए अपने सुझाव और प्रतिक्रिया देने का कष्ट करें।

अध्याय 1. स्वीकार्यता - हमारे अन्दर  

तीसा से जुड़ने के बाद कुछ कार्यशालाओं, राष्ट्रीय सम्मेलनों और स्वयं सहायता समूह की बैठक में शामिल होने का अवसर मिला। इसी दौरान मन में विचार आया की स्वीकार्यता क्या है? स्वीकार्यता का मेरे जीवन में क्या महत्व है? स्वीकार्यता हकलाहट को नियंत्रित करने में कितनी कारगर है? सबसे पहला क्रांतिकारी बदलाव मैंने महसूस किया की हकलाहट को लेकर अपने पिता को दोष देना बन्द कर दिया। अब मैं समझ गया था की हकलाहट के लिए पिता जिम्मेदार नहीं हैं। यहां तक की परिवार और समाज का कोई भी व्यक्ति मेरी हकलाहट के लिए जिम्मेदार नहीं है। मेरा दुर्भाग्य रहा कि हकलाहट के कारण अपने पिता के प्रति जो नफरत मैंने पाल रखी थी, उसे सुखद अनुभव में बदलने का मौका मुझे नहीं मिला। लगातार 16 महीने तक कोमा में रहने के दौरान मैंने अपने पिता की देखभाल की। यही वह वक्त था, जब उन्हें सबसे अधिक देखभाल की जरूरत थी, क्योंकि वे कुछ बोल भी नहीं सकते थे। जिस तरह एक पिता अपने बच्चे को प्यार करता है, ठीक उसी प्रकार मैं अपने पिता से प्यार करने लगा था। 


मेरे पिता ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों में भी मुझे बहुत कुछ सिखा दिया - जीवन की हर चुनौती का हिम्मत और धैर्य के सामना करो। साथ ही जितना हो सके बेहतर करने की कोशिश करना। मुझे अपनी गलतियों के लिए पिता से माफी मांगने का मौका तो नहीं मिला, लेकिन उनकी सीख ने एक अच्छा इंसान इंसान बनने की प्रेरणा जरूर दी है।

क्या सिर्फ हकलाहट को स्वीकार कर लेना ही स्वीकार्यता है? इस विषय में लोगों की अलग-अलग राय हो सकती है, लेकिन मैं यह समझ पाया हूँ कि हमें स्वीकार्यता को केवल हकलाहट के दायरे में सीमित न रखकर व्यापक दृष्टिकोण अपनाना चाहिए। 

हम जीवन की तमाम प्रतिकूलताओं (ऐसी बातें जिन्हें हम पसंद नहीं करते, स्वीकार नहीं कर पाते) को जितना अधिक सहज रूप में स्वीकार करते चले जाएंगे, जीवन उतना ही आनन्दमय होगा। बात चाहे हकलाहट को नकारने की हो या अन्य किसी पहलू की, हम जितना अधिक नकारते चलेंगे हमारे भीतर का संघर्ष उतना ही ज्यादा बढ़ता जाएगा। इसी उधेड़बुन में हम खुद को ही समझ नहीं पाएंगे, खुद को पहचान ही नहीं सकेंगे की हम क्या हैं?
 
सबसे बुनियादी बात तो यह है कि स्वीकार्यता के लिए हमें कहीं बाहर खोजने की जरूरत नहीं है, बस, अपने मन और अपनी आत्मा को स्वीकार करने के लिए तैयार करना होगा। हो सकता है कि आप उस घटना को अभी तक न भूल पाए हों जब पहली बार हकलाने के कारण आपको बेहद अपमानित होना पड़ा हो? आपका मजाक उड़ाया गया हो? लेकिन आप इस बात को नहीं नकार सकते कि आप पर हंसने वाले लोगों को पता ही नहीं था कि आप क्यों हकलाते हैं? सच तो यही है कि ऐसे व्यक्ति का इसमें कोई दोष नहीं था, क्योंकि यह काफी हद तक परिस्थितियों पर निर्भर होता है। उस व्यक्ति की आपको ठोस पहुंचाने की कोई मंशा नहीं थी। तो ऐसी स्थिति में उस कड़वी घटना को अपने दिल में बसाए रखना कोई समझदारी भरा कदम नहीं हो सकता।

अक्सर हमारे परिवार, मित्र, रिश्तेदार, सहकर्मी और समाज हमें हमारे अनुसार नहीं जान पड़ते। हम हमेशा शिकायत करते हैं कि दुनिया में मुझे कोई समझता ही नहीं? सब मेरी कमियों को देखते हैं? सब मुझसे ईर्ष्या करते हैं? आदि-आदि।

यहां मजेदार बात तो यह है कि इस मनोदशा और संघर्ष से सिर्फ हम ही नहीं बल्कि समाज का हर आदमी जूझ रहा है। माता-पिता मन मुताबिक नहीं मिले, जीवन साथी आपको समझ नहीं पा रहा, दोस्त आपकी ओर ज्यादा ध्यान नहीं देते, ऑफिस के सहकर्मी आपसे ठीक तरह से पेश नहीं आते?
इस तरह की शिकायत लगभग सभी लोग करते हैं, लेकिन इस अनावश्यक संघर्ष से बाहर निकलने का कोई उपाय नहीं खोजना चाहता? जबकि इसका समाधान सिर्फ हमारे पास ही है - वह है स्वीकार्यता।

हमें अपने आसपास के लोगों की पसंद और रूचियों का सम्मान करना सीखना चाहिए। मैं अक्सर लोगों को शाकाहार और मांसाहार पर बहस करते हुए देखता हूँ। शाकाहारी व्यक्ति शाकाहार के फायदे गिनाता है और मांसाहारी व्यक्ति कहता है कि सबकुछ खाना चाहिए। ऐसी गैरजरूरी बातचीत का कोई सार नहीं निकलता, किसी को कोई लाभ नहीं मिलता बल्कि कभी-कभी सम्बंधों में कटुता आने लगती है। 

अच्छा हो की हम सब एक-दूसरे की खान-पान की आदतों का सम्मान करे, किसी को बिना मांगे सलाह न दें। सभी की भावनाओं और विचारों को स्वीकार करें। इससे आप पाएंगे की फालतू की बातों को लेकर आपके मन का बोझ धीरे-धीरे उतर रहा हैं, कम हो रहा है।

स्वीकारने की इस कड़ी में लोगों की बातों को ध्यान से सुनना, उन्हें अपनी बात कहने का पूरा मौका देना महत्वपूर्ण है। अगर आपसे पूछा जाए की आप किस व्यक्ति को पसंद करते करते हैं, तो आपका जवाब क्या होगा? निश्चित ही आप अपने किसी ऐसे दोस्त, टीचर, धर्मगुरू का नाम बताएंगे जो आपकी बात को, आपकी पीड़ा को ध्यान से सुनते हैं, जिनके साथ आप अपनी तकनीफ को आसानी से, सहजता से साझा कर पाते हैं। ऐसा सिर्फ इसलिए है, क्योंकि वह व्यक्ति आपको गंभीरता से सुनता है।

स्वीकार्यता पर कार्य करने में स्वैच्छिक हकलाहट (वालेन्टरी स्टटरिंग) बहुत मददगार है। वास्तव में यही एक ऐसी तकनीक है, जिसे अपनाकर आप अपनी हकलाहट के दर्द और कुंठा से निजात पा सकते हैं। स्वैच्छिक हकलाहट हमें अपनी हकलाहट को बाहर लाने, खुलकर हकलाने और हकलाहट पर लोगों की प्रतिक्रिया को जानने का जरिया बन जाती है। जरा सोचिए, जिस हकलाहट को आप सालों से छिपाते हुए आ रहे है, आज खुद जान बूझकर हकलाना थोड़ा अजीब महसूस हो सकता है, लेकिन यही एक ऐसा रास्ता है जिस पर चलकर हम अपनी हकलाहट के तनाव को कम या बिल्कुल खत्म कर सकते हैं।

- अमित 09424319968

3 comments:

Satyendra said...

बहुत सुन्दर अमित..
हवा की तरह स्वीकार्यता हमारे इर्द गिर्द हमेशा थी - और रहेगी..
पर अहंकार वश हम इसे नकारते हैं: काश मेरी जिंदगी ऐसी न हो के "वैसी" होती.. जब "वैसी" होती है, तब हम कहते हैं : काश जो उसके पास है वो मेरे पास होता - तो मै दिखा देता दुनिया को आदि आदि ..
इस तरह यह खेल, यह भटकाव चलता रहता है - फिल्म के अन्दर एक दूसरी फिल्म चलती रहती है.. साल बीत जाते हैं और हमारे अंदर छिपी तमाम संभावनाएं धरी की धरी रह जाती हैं !
चलें उस तरफ जहाँ - जो जैसा है उसे वैसा ही कहने, समझने, स्वीकार करने में कोई मुश्किल नहीं, कोई हेठी नहीं - और उसे इस्तेमाल कर के आगे बढना संभव है.. सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय ..
धन्यवाद्

jasbir singh said...

The sooner we understand the concept of acceptance the earlier we are at ease with our stammering.By fighting with it we are going to be a great looser.We have to understand stammering is our baby. We have to love it , care it. With affection only we can manage it.
Very nice and a great effort Amit ji.
Congratulations.
Have a nice day.

Unknown said...

भाई अमित कुशवाह जी , स्वीकार्यता की व्यापकता एवं उसकी सार्थकता पर आपके विचार बहुत ही उपयोगी ।