हमारी पांच प्रत्यक्ष इंद्रियां हैं:- आंख, कान, नाक, जीभ और
स्पर्श। छठी अप्रत्यक्ष इंद्री है मन। इन छह इंद्रियों से ही हम ध्यान कर
सकते हैं या इन छह में इंद्रियों के प्रति जाग्रत रहना ही ध्यान है। इनमें
से जो छठी इंद्री है, वह पांच इंद्रियों का घालमेल है या यह कहें कि यह
पांचों इंद्रियों का मिलन स्थल है। यही सबसे बड़ी दिक्कत है। मिलन स्थल को
मंदिर बनाने के लिए ही ध्यान किया जाता है।
जब हम कहते हैं साक्षी ध्यान तो उसमें आंखों का उपयोग ही अधिक होता है। उसी तरह जब हम कहते हैं श्रवण ध्यान तो उसका मतलब है सुनने पर ही ध्यान केंद्रित करना। जब व्यक्ति निरंतर जाग्रत रहता है किसी एक इंद्री के प्रति तो मन की गति शून्य हो जाती है और वह मन फिर सिद्धिग्राही हो जाता है।
भगवान महावीर की ध्यान विधियों का केंद्र बिंदू था श्रवण ध्यान। यह बहुत ही प्राचीन ध्यान है। प्रकृति का संगीत, दिल की धड़कन, खुद की आवाज आदि को सुनते रहना। सुनते वक्त सोचना या विचारना नहीं यही श्रवण ध्यान है। मौन रहकर सुनना।
सुनकर श्रवण बनने वाले बहुत है। कहते हैं कि सुनकर ही सुन्नत नसीब हुई। सुनना बहुत कठीन है। सुने ध्यान पूर्वक पास और दूर से आने वाली आवाजें।
कैसे करें यह ध्यान :
1. पहले आप किसी मधुर संगीत को सुनने का अभ्यास करें। फिर अपने आसपास उत्पन्न हो रही आवाजों को होशपुर्वक से सुने। सुनने वक्त सोचना नहीं है। विश्लेषण नहीं करना है कि किसकी आवाज है। कोई बोल रहा है तो उसे ध्यानपूर्वक सुने। रात में पंखे आवाज या दूर से आती ट्रक के हॉर्न की आवाज सुने। सुने चारो तरफ लोग व्यर्थ ही कोलाहल कर रहे हैं और व्यर्थ ही बोले जा रहे हैं हजार दफे बोली गई बातों को लोग कैसे दोहराते रहते हैं।
2. आंख और कान बंदकर सुने भीतर से उत्पन्न होने वाली आवाजें। जब यह सुनना गहरा होता जाता है तब धीरे-धीरे सुनाई देने लगता है- नाद। अर्थात ॐ का स्वर। जब हजारों आवाजों या कोलाहल के बीच 'ओम' का स्वर सुनाई देने लगे तब समझना की यह ध्यान अब सही गति और दिशा में है।
संदर्भ : ध्यान योग प्रथम और अंतिम मुक्ति (ओशो)
जब हम कहते हैं साक्षी ध्यान तो उसमें आंखों का उपयोग ही अधिक होता है। उसी तरह जब हम कहते हैं श्रवण ध्यान तो उसका मतलब है सुनने पर ही ध्यान केंद्रित करना। जब व्यक्ति निरंतर जाग्रत रहता है किसी एक इंद्री के प्रति तो मन की गति शून्य हो जाती है और वह मन फिर सिद्धिग्राही हो जाता है।
भगवान महावीर की ध्यान विधियों का केंद्र बिंदू था श्रवण ध्यान। यह बहुत ही प्राचीन ध्यान है। प्रकृति का संगीत, दिल की धड़कन, खुद की आवाज आदि को सुनते रहना। सुनते वक्त सोचना या विचारना नहीं यही श्रवण ध्यान है। मौन रहकर सुनना।
सुनकर श्रवण बनने वाले बहुत है। कहते हैं कि सुनकर ही सुन्नत नसीब हुई। सुनना बहुत कठीन है। सुने ध्यान पूर्वक पास और दूर से आने वाली आवाजें।
कैसे करें यह ध्यान :
1. पहले आप किसी मधुर संगीत को सुनने का अभ्यास करें। फिर अपने आसपास उत्पन्न हो रही आवाजों को होशपुर्वक से सुने। सुनने वक्त सोचना नहीं है। विश्लेषण नहीं करना है कि किसकी आवाज है। कोई बोल रहा है तो उसे ध्यानपूर्वक सुने। रात में पंखे आवाज या दूर से आती ट्रक के हॉर्न की आवाज सुने। सुने चारो तरफ लोग व्यर्थ ही कोलाहल कर रहे हैं और व्यर्थ ही बोले जा रहे हैं हजार दफे बोली गई बातों को लोग कैसे दोहराते रहते हैं।
2. आंख और कान बंदकर सुने भीतर से उत्पन्न होने वाली आवाजें। जब यह सुनना गहरा होता जाता है तब धीरे-धीरे सुनाई देने लगता है- नाद। अर्थात ॐ का स्वर। जब हजारों आवाजों या कोलाहल के बीच 'ओम' का स्वर सुनाई देने लगे तब समझना की यह ध्यान अब सही गति और दिशा में है।
संदर्भ : ध्यान योग प्रथम और अंतिम मुक्ति (ओशो)
1 comment:
जब हमारे हित की बात होती है तो अक्सर हम बडे ध्यान से सुनते हैं .. इसी को जब हम स्थाई भाव बना लेते हैं तो यह एक बहुत बडा स्किल बन जाता है - यही कम्युनिकेशन की आत्मा है..
धन्यवाद अमित!
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