पिछले 4 माह मेरे और परिवार के लिए काफी चुनौतीपूर्ण रहे। पिताजी एक सड़क दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल हो गए और उनका इलाज जबलपुर स्थित एक अस्पताल में 2 माह तक चला।
अचानक हम लोगों पर आई यह विपदा, बहुत ही दुःखद और मुश्किलोंभरी थी। पर समय के साथ-साथ सबकुछ हो गया, रास्ते अपने आप खुलते गए।
October 2013 में दिल्ली में टीसा की नेशनल कांफ्रेन्स के दौरान देहरादून के एसएलपी श्री विजयकुमार जी ने अपनी स्पीच के दौरान कहा था कि जब कोई भी आशा नहीं हो तब भी एक बार प्रयास कर लेना चाहिए, हो सकता है कि कोई रास्ता निकल आए। बस, यही बात मुझे याद रही। पिताजी के इलाज के आखिरी दौर में जब धन की कमी आई तो मेरे परिजनों ने कहा कि बैंक जाकर बात करो, जहां पर पिताजी का बैंक खाता है। मैंने तुरंत ही इस प्रस्ताव को नकार दिया। आखिर पापा के होते हुए हम लोग कैसे उनके खाते से इलाज के लिए पैसे निकाल सकते हैं? यह तो हो ही नहीं सकता! यह तो किसी कानून में नहीं है, कि किसी के जीवित रहते हुए उसकी बिना सहमति के दूसरा व्यक्ति धन निकाल ले।
पर कोई और रास्ता भी नहीं था। सो, सोचा एक बार जाकर बैंक में बात कर लेते हैं। मैं बैंक आफ बडौदा, सतना के बैंक मैंनेजर के पास गया और अपनी मुशीबत से उन्हें अवगत कराया। इस सिलसिले में करीब 3-4 दफा बैंक के चक्कर काटने पड़े। हर बार नया-नया नियम बताया गया। आखिर में अस्पताल के नाम से डीडी बनाकर दिया गया और पापा के खाते से राशि समायोजित कर दी गई। मैं जब भी बैंक गया हर बार बड़े धैर्य से बैंक कर्मचारियों की बात को सम्मान दिया और उनके कहे अनुसार करता गया। बस, काम हो गया। आखिर में मेरी यह सोच धराशायी हो गई कि अब तक मैं तो जानता था वही सच है। नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, नए अनुभव नए सच को परिभाषित करते हैं।
मैं कई बार पिताजी के इलाज के सिलसिलें कई नेताओं से मिला, बातचीत किया। अस्पताल में डाक्टर, नर्स से बात किया। दवाई खरीदना, अनजान शहर में जाने के लिए रेल्वे स्टेशन पर जाकर बार-बार टिकट खरीदना। हर जगह कहीं कोई खराब अनुभव नहीं रहा हकलाहट को लेकर। सबकुछ सामान्य रहा। किसी ने मेरी हकलाहट पर ध्यान ही नहीं दिया।
अब मै हर बार फालोअप के लिए डाक्टर साहब के पास जाने से पहले उनके अस्सिटेन्ट से फोन पर बात करता हूं, कभी हकलाहट को लेकर समस्या नहीं आई। कई अनजान लोगों से लगातार मिलना, बातचीत करना, काम करना, सबकुछ बहुत सहज हो गया।
वास्तव में यह सब इसलिए संभव हो पाया क्योंकि पिताजी की जान बचाने के लिए यह करना जरूरी था। कई अच्छे और बुरे अनुभव रहे है इस दौरान, पर हकलाहट को लेकर हर व्यक्ति को एकदम सकारात्मक पाया है मैंने।
मैं पिछली बार फालोअप के लिए डाक्टर साहब के पास गया था, तो टीसा का बैच लगाकर गया था। दिनभर बैच लगाए घूमता रहा, पर किसी ने कोई ध्यान ही नहीं दिया उस पर। समझ में आया कि किसी को आपसे कोई मतलब नहीं है, सब लोग अपने काम की बात करना और सुनना पसंद करते है।
हमेशा हम लोग बचते रहे है, बातचीत करने से इस पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर की लोग क्या कहेंगे, पर सच तो यह है कि लोगों को आपके बारे में सोचने का टाइम ही नहीं है।
- अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
09300939758
अचानक हम लोगों पर आई यह विपदा, बहुत ही दुःखद और मुश्किलोंभरी थी। पर समय के साथ-साथ सबकुछ हो गया, रास्ते अपने आप खुलते गए।
October 2013 में दिल्ली में टीसा की नेशनल कांफ्रेन्स के दौरान देहरादून के एसएलपी श्री विजयकुमार जी ने अपनी स्पीच के दौरान कहा था कि जब कोई भी आशा नहीं हो तब भी एक बार प्रयास कर लेना चाहिए, हो सकता है कि कोई रास्ता निकल आए। बस, यही बात मुझे याद रही। पिताजी के इलाज के आखिरी दौर में जब धन की कमी आई तो मेरे परिजनों ने कहा कि बैंक जाकर बात करो, जहां पर पिताजी का बैंक खाता है। मैंने तुरंत ही इस प्रस्ताव को नकार दिया। आखिर पापा के होते हुए हम लोग कैसे उनके खाते से इलाज के लिए पैसे निकाल सकते हैं? यह तो हो ही नहीं सकता! यह तो किसी कानून में नहीं है, कि किसी के जीवित रहते हुए उसकी बिना सहमति के दूसरा व्यक्ति धन निकाल ले।
पर कोई और रास्ता भी नहीं था। सो, सोचा एक बार जाकर बैंक में बात कर लेते हैं। मैं बैंक आफ बडौदा, सतना के बैंक मैंनेजर के पास गया और अपनी मुशीबत से उन्हें अवगत कराया। इस सिलसिले में करीब 3-4 दफा बैंक के चक्कर काटने पड़े। हर बार नया-नया नियम बताया गया। आखिर में अस्पताल के नाम से डीडी बनाकर दिया गया और पापा के खाते से राशि समायोजित कर दी गई। मैं जब भी बैंक गया हर बार बड़े धैर्य से बैंक कर्मचारियों की बात को सम्मान दिया और उनके कहे अनुसार करता गया। बस, काम हो गया। आखिर में मेरी यह सोच धराशायी हो गई कि अब तक मैं तो जानता था वही सच है। नहीं, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, नए अनुभव नए सच को परिभाषित करते हैं।
मैं कई बार पिताजी के इलाज के सिलसिलें कई नेताओं से मिला, बातचीत किया। अस्पताल में डाक्टर, नर्स से बात किया। दवाई खरीदना, अनजान शहर में जाने के लिए रेल्वे स्टेशन पर जाकर बार-बार टिकट खरीदना। हर जगह कहीं कोई खराब अनुभव नहीं रहा हकलाहट को लेकर। सबकुछ सामान्य रहा। किसी ने मेरी हकलाहट पर ध्यान ही नहीं दिया।
अब मै हर बार फालोअप के लिए डाक्टर साहब के पास जाने से पहले उनके अस्सिटेन्ट से फोन पर बात करता हूं, कभी हकलाहट को लेकर समस्या नहीं आई। कई अनजान लोगों से लगातार मिलना, बातचीत करना, काम करना, सबकुछ बहुत सहज हो गया।
वास्तव में यह सब इसलिए संभव हो पाया क्योंकि पिताजी की जान बचाने के लिए यह करना जरूरी था। कई अच्छे और बुरे अनुभव रहे है इस दौरान, पर हकलाहट को लेकर हर व्यक्ति को एकदम सकारात्मक पाया है मैंने।
मैं पिछली बार फालोअप के लिए डाक्टर साहब के पास गया था, तो टीसा का बैच लगाकर गया था। दिनभर बैच लगाए घूमता रहा, पर किसी ने कोई ध्यान ही नहीं दिया उस पर। समझ में आया कि किसी को आपसे कोई मतलब नहीं है, सब लोग अपने काम की बात करना और सुनना पसंद करते है।
हमेशा हम लोग बचते रहे है, बातचीत करने से इस पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर की लोग क्या कहेंगे, पर सच तो यह है कि लोगों को आपके बारे में सोचने का टाइम ही नहीं है।
- अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
09300939758
1 comment:
सचमुच - आपदा अन्दर छुपी क्षमताओं को बाहर ले आने का बेहद सशक्त माध्यम है..मगर इसे समझने मे पृायः समय लगता है..धन्यवाद अपनी गहन अन्तर्दृष्टि बाँटने के लिये...
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