February 12, 2013

जो डूबा सो पार . . . !


नया जॉब ज्वाइन करने के बाद मैं अपनी हकलाहट को लेकर बहुत परेशान था की कैसे इतने सारे स्कूल्स में जाकर टीचर्स से बात करूँगा? दो-चार दिन तक तो आफिस में वर्क करता रहा लेकिन फील्ड में तो जाना ही था। बहुत संकोच करते हुए मैं पहली बार एक प्राइवेट स्कूल में गया। थोड़ी-सी रुकावट के बाद मैं वहां पर सार्थक ढंग से बोल पाया और अपना काम कर पाया। इसके बाद मेरे अन्दर आत्मविश्वास जाग आया। मैं धीरे-धीरे सरकारी स्कूल में जाने लगा और अब तक मैं पचास से ज्यादा जगहों पर जा चुका हूँ। हर बार एक नया और अच्छा अनुभव रहा है। हकलाहट के कारण कोई खास समस्या अब तक मुझे नहीं आई। मैंने अपनी हकलाहट को छुपाने की नाकाम कोशिश नहीं की। 


ऐसा ही एक और वाकया हुआ। एक बार आफिस के काम से एक अनजान व्यक्ति से पहली बार फ़ोन पर बात करना था। मैंने हिम्मत की और फोन लगाया। कुछ रुकावट के साथ मैंने उस व्यक्ति से पूरी बात की। मैं अपने आफिस पर आने वाले लोगों से खुद आगे होकर मिलता हूँ, उनसे बात करता हूँ। 

इससे मैं यह जान पाया की हकलाहट का सही अर्थों में सामना करने के लिए हमें सारी शर्म और डर को भुलाकर बाहर निकलना होगा और बातचीत करनी होगी। जिस प्रकार हम पानी में उतरे बिना, उसमें डूबे बिना पार नहीं जा सकते वैसे ही हम जब तक बाहर नहीं जाएंगे, लोगों से मिलेंगे नहीं, उनसे बात नहीं करेंगे तब तक हकलाहट से पार पाना मुश्किल है। 

मेरी एक महिला सहकर्मी लोगों से बात करने में संकोच करती हैं, फ़ोन पर भी बात करना होता है तो मुझे ही कहती हैं, जबकि उन्हें हकलाहट की कोई समस्या नहीं है। इससे मैं यह जान पाया की हम हकलाने वालों के अलावा दूसरे लोग भी अकसर बात करने में संकोच करते हैं। बस हर हाल में जरूरी है थोड़ी सी हिम्मत और धैर्य की . . . ! 
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- अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
0 9 3 0 0 9 - 3 9 7 5 8  

2 comments:

Satyendra said...

Bahut sundar..

jasbir singh said...

This is very clear it is only WE who can help ourselves.
Further GOD only helps those who help themselves.