February 26, 2016

स्वीकार्यता पर एक पुस्तक : अध्याय 3 - दूर होंगी सारी बाधाएं



दूर होंगी सारी बाधाएं

हकलाहट को स्वीकार करने के बाद सारी बाधाएं खुद ब खुद खत्म होने लगती हैं। हकलाने का डर, शर्म और दुःख गायब हो जाते हैं। जब आप दूसरों के सामने हकलाहट को स्वीकार कर लेते हैं, उनसे हकलाहट के बारे में बातचीत करते हैं, तो आप पाते हैं कि दूसरे लोग आपके शत्रु नहीं, मित्र हैं। वे भी आपकी तकलीफ को, आपाकी भावनाओं को समझते हैं।

स्वीकार्यता इस बात की ओर इशारा करती है कि अब आप हकलाहट को सकारात्मक रूप में लेकर आगे बढ़ने की ओर अग्रसर हो रहे हैं। फोन पर अक्सर कुछ साथी हकलाहट से निपटने के लिए कोई तकनीक या शार्टकट पूछते हैं, उनको मेरा एक ही जवाब होता है - स्वीकार्यता। रोचक बात तो यह है कि हम जीवन में शार्टकट के इतने आदी हो चुके होते हैं कि हर समस्या का हल तुरंत पाने की चाह रखते हैं, जो कि शायद हकलाहट के मामले में संभव नहीं। हां, एक शार्टकट जरूर है- वह है जितना जल्दी हो सके स्वीकार करना सीख जाएं।


अक्सर किसी इंटरव्यू में जाने से पहले हकलाने वाले साथी कई आशंकाओं से घिर जाते हैं। क्या वे हकलाते हुए अपना इंटरव्यू अच्छे से दे पाएंगे? हकलाने के कारण उनका चयन होगा या नहीं? अगर असफल हुए तो आगे क्या होगा? इन सबका एक ही समाधान है - इंटरव्यू की अच्छी तैयारी और इंटरव्यू के समय हकलाहट की सहज रूप में स्वीकार करते हुए आगे बढ़ना। यदि आपने यह साहस दिखाया तो इसमें कोई शक नहीं की आपका सलेक्शन न हो! 

आप एक दिन जरूर सफल होंगे बस थोड़ा धैर्य रखना होगा। आखिर कभी न कभी कोई ऐसा इंटरव्यू पैनल आपको जरूर मिलेगा जहां आपके ज्ञान और कौशल को तवज्जो दी जाएगी, हकलाहट को नजरअंदाज करते हुए।

यही बात विवाह के मामले में भी लागू होती है। विवाह एक ऐसा बंधन है जो विश्वास पर टिका होता है। चाहे युवक हो या युवती, शादी से पहले अपने होने वाले जीवन साथी से हकलाहट के बारे में बातचीत कर लेना, खुलकर सबकुछ बता देना सही होगा। हो सकता है कि इस कारण रिजेक्शन झेलना पड़े, लेकिन आपको हर हालत के लिए तैयार रहना चाहिए। अंत में विजय सत्य की ही होती है - एक दिन कोई ऐसा मिलेगा जो आपकी हकलाहट को स्वीकार करेगा और मधुर रिश्ते की शुरूआत होगी।

स्वीकार्यता हमारे आसपास ही है, बस उसे थोड़ा पहचानने और करीब से देखने की जरूरत है। आपने देखा होगा की महिलाएं जब किसी दुकान में साड़ी खरीदने जाती हैं तो कई बारे ढेरों साड़ियाँ देखने के बाद भी पसंद नहीं आतीं और वापस आना पड़ता है। ऐसी स्थिति में दुकानदार कभी खींझता नहीं, निराश नहीं होता, दुःखी नहीं होता - क्योंकि उसके व्यापार का एक अहम् सिद्धान्त है - कभी धैर्य न खोना। जो व्यक्ति इस धैर्य की परीक्षा में सफल हो जाते हैं, वही जीवन में सुख और आनन्द के भागीदार होते हैं। बिजनेसमैन यह स्वीकार करना सीख जाते हैं कि उनकी दुकान पर आने वाला हर व्यक्ति खरीदार नहीं होगा।

आपने देखा होगा कि मई-जून में तेज गर्मी होने पर लोग आपस में बातें करने लगते हैं- अरे! आज तो बहुत गर्मी है। आज पारा 45 डिग्री को पार कर गया। गर्मी होने पर, धूप लगने पर हमारे शरीर से पसीना बहने लगता है। हमारा शरीर गर्मी को स्वीकार करते हुए, अपने बचाव में पसीना निकालता है, जिससे शरीर का तापमान नियंत्रित हो सके। सच तो यही है कि हमारे शरीर ने हर जलवायु को स्वीकार करते हुए जीना सीख लिया है - यही तो है सच्ची स्वीकार्यता।

आज भारत में क्रिकेट बहुत लोकप्रिय खेल है। भारतीय टीम जब क्रिकेट मैच या सीरीज को जीत जाती है, तो क्रिकेटप्रेमियों का उत्साह चरम पर होता है। लोग खूब जश्न मनाते हैं, फटाखे जलाते हैं, मिठाईयाँ बांटते हैं, खिलाड़िओं का सम्मान करते हैं। कभी यही टीम हार जाती है तो लोग सड़क पर प्रदर्शन करते हैं, क्रिकेटर्स के पोस्टर जलाते हैं, उनके घरों पर पत्थर फेंकते हैं।

होता यह है कि हम नहीं समझ पाते कि हर चीज के 2 पहलू हैं - जीत या हार। जिस प्रकार हम जीत में खुश होते हैं, उसी तरह हार को सहजता से स्वीकार करना चाहिए। शायद इसीलिए हर जीत के बाद सम्मान में हार (माला) पहनाकर स्वागत किया जाता है, ताकि विजेता को यह ध्यान रहे की हार का भी सम्मान करना है, उससे विचलित नहीं होना है।

हकलाहट से जुड़ी हुई कड़वी यादों को एकदम से भुला देना बहुत मुश्किल लगता है। काफी हद तक यह संभव भी नहीं। लेकिन लम्बे समय तक घुट-घुटकर जीने से तो यही बेहतर है कि जो कुछ हुआ उसे भुलाकर आगे की जिंदगी को खुशनुमा बनाया जाए। पिछले 2 वर्षों में मैंने अपने जीवन के सबसे कठिन दौर का सामना किया। अपने पिता को पल-पल जीवन के लिए संघर्ष करते हुए देखना मेरे लिए कितना दुःखदायी रहा होगा इसकी कल्पना आप खुद कर सकते हैं। जिस वक्त मेरे पिता ने अंतिम सांस ली, मैं उनके साथ था। आज मेरे पिता का निधन हुए 5 माह बीत गए हैं, लेकिन मन में जब भी पिता का ख्याल आता है, बहुत व्याकुल हो उठता हूँ। इस अहसनीय तकलीफ के बावजूद मैं अपना हर काम अच्छे से करने की कोशिश कर रहा हूँ। मैंने इस सच को स्वीकार कर लिया है कि अपने पिता को तो वापस पा नहीं सकता, लेकिन उनको प्रेरणा मानकर हर क्षेत्र में बेहतर करने की कोशिश करते रहना चाहिए।

आज इस दुनिया में इतना दर्द भरा पड़ा है कि हमारी हकलाहट कोई खास तकलीफदेह नहीं लगती। जरा आप किसी अस्पताल में जाकर देखिए - पल-पल जिन्दगी के लिए संघर्ष करते ढेरों मरीज दिखाई दे जाएंगे। हर मरीज को यह आस है कि जल्दी ठीक होकर अपने घर वापस जाए। हिन्दी फिल्म का एक गाना बहुत प्रासंगिक होगा- “दुनिया में इतना गम है, मेरा गम फिर भी कम है।“

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