February 24, 2016

स्वीकार्यता पर एक पुस्तक : अध्याय 2 स्वीकार्यता का मतलब?


स्वीकार्यता का मतलब? 
स्वीकार्यता का मतलब यह है कि जो है, जैसा है, अब तक जीवन में जो कुछ बुरा हुआ, उसे स्वीकार करते हुए आप आगे बढ़ना चाहते हैं, अपने जीवन को बेहतर बनाना चाहते हैं। इसमें स्वयं सहायता समूह काफी अहम् भूमिका निभाता है। अपने जीवन के कई साल हर हकलाने वाला व्यक्ति इसी गलतफहमी में गुजार देता है कि दुनिया में सिर्फ वही एक अकेला आदमी है, जो इतना अधिक हकलाता है। जबकि सच तो यह है कि छिपाने की प्रवृत्ति के चलते समाज में 2 हकलाने वाले व्यक्ति शायद ही कभी एक-दूसरे से मिल पाते हैं, क्योंकि सब छिपाने की कला में निपुण हैं।


स्वयं सहायता समूह हकलाने वाले व्यक्ति को अपनी हकलाहट को खुलकर स्वीकार करने, हकलाहट पर अपने अनुभव साझा करने और हकलाहट से उबरने का एक बेहतर माहौल प्रदान करता है। बैठक में कई हकलाने वाले साथियों को सुनकर, उनकी सफलताओं के बारे में जानकर हमें यह सीख मिलती है कि हकलाना निश्चित ही बहुत सहज है और इसके लिए मैं खुद, मेरा परिवार या समाज जिम्मेदार नहीं है।


हकलाने के मामले में स्वीकार्यता का मतलब सिर्फ यह नहीं है कि आपने दूसरों के सामने बस स्वीकार कर लिया- हां, मैं हकलाता हूँ। सही अर्थों में स्वीकार्यता तब आएगी जब हकलाहट के बावजूद आप प्रसन्न रहना और तनावमुक्त होना सीख जाएंगे। तीसा के कई राष्ट्रीय सम्मेलनों में देश-विदेश के 100 से अधिक हकलाने वाले लोगों को एक साथ, एक मंच पर देखना वाकई अद्भुत अनुभव होता है, लेकिन यह इस बात की ओर भी इशारा करता है कि भारतीय समाज में हकलाहट को लेकर स्वीकार्यता धीरे-धीरे बढ़ रही है। अब हकलाने वाले साथी बाहर निकलकर अपनी तकलीफ से आजाद होना चाहते हैं।

भारतीय समाज में महिलाओं के लिए कई पारिवारिक और सामाजिक सीमाएं हैं, ऐसी स्थिति में कोई युवती हकलाती हो तो उसकी मानसिक स्थिति क्या होगी इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इंदौर में तीसा के स्वयं सहायता समूह में काम करने के दौरान मुझे एक हकलाने वाली युवती और उसकी माँ से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। माँ चाहती थीं कि बेटी की हकलाहट 4-5 महीने में ठीक हो जाए, जिससे उसकी शादी में हकलाहट की वजह से कोई अड़चन नहीं आए। मैं उनकी सोच और उसके पीछे छिपी विवशता को आसानी से समझ सकता था। 

इधर, हाल के कुछ वर्षों में तीसा की कार्यशालाओं, राष्ट्रीय सम्मेलनों और स्वयं सहायता समूहों में हकलाने वाली युवतियों की बढ़ती सहभागिता को देखकर यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्वीकार्यता ने अब हकलाने वाली युवतियों और उनके परिवारों तक दस्तक दे दी है। तीसा ब्लॉग, व्हाट्सएप और फेसबुक पेज पर बिना अपनी पहचान छिपाए युवतियां अब हकलाहट पर विचार-विमर्श कर रही हैं और अपने अनुभव शेयर कर रही हैं। हो सकता है कि यह सब अभी बहुत छोटे पैमाने पर दिखाई दे, लेकिन यह भविष्य के लिए एक शुभ संकेत माना जा सकता है।

मेरे कुछ परिचित और मित्र ऐसे हैं, जिनसे मैंने हकलाहट और तीसा के प्रयासों के बारे में बातचीत करने की कोशिश किया, लेकिन उन्होंने मेरी बात को नकार दिया। उनका नकारना यह साबित नहीं करना की वे हकलाहट को लेकर लापरवाह है, बल्कि सच तो यह है कि उन्होंने भी हकलाहट को स्वीकार करने का अपना एक रास्ता खोज लिया है। यदि आपने हकलाहट को अपने जीवन में हावी नहीं होने दिया, आपने कार्य और जिम्मेदारियां तो आप सच्चे विजेता हैं

1 comment:

Satyendra said...

मेरे वो प्यारे हिंदी भाषी दोस्त कहाँ हैं जो अक्सर शिकायत करते हैं और सुझाव भी देते हैं की तीसा ब्लॉग हिंदी में होना चाहिए..? क्या वे ये सब पढ़ रहे हैं? क्या पढ़ कर कुछ विचार मन में आ रहे हैं? अगर हाँ तो वे शेयर कब करेंगे?
धन्यवाद्