August 15, 2012

क्या हम आज़ाद हैं . . . ?


१५ अगस्त को हमने देश कि आजादी का जश्न मनाया. खुशी देश कि आज़ादी कि, खुशी खुली हवा में सांस लेने कि, खुशी खुलकर बोलने की . . . !

आजादी के बाद देश के संविधान और क़ानून ने सभी को बराबरी के अधिकार दिए, लेकिन अफसोस हम हकलाने वाले समाज के धाराप्रवाह बोलने कि अनिवार्यता के नियम का बुरी तरह से शिकार होते हैं. दरअसल, बचपन से ही हमारे मन में यह गलत धारणा बैठा दी जाती है कि धाराप्रवाह बोलना ही मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है, जो कि सही नहीं है. मज़े कि बात तो यह है कि जो लोग धाराप्रवाह बोलते हैं, वे हर समय सार्थक और अर्थपूर्ण ही बोलते हों ऐसा बिलकुल नहीं है. 

मुद्दे कि बात यह है कि हम हकलाने वाले खुद ही डर, भय और समाज के नियमों कि चिंता कर बोलने से बचते हैं. क्योकि हम यह सोचते हैं कि अगर हम हकला जाएंगे तो समाज का कोई कानून टूट जाएगा, हकलाकर हम कोई बहुत बड़ा अपराध कर देंगे. पर यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि देश के संविधान और तमाम कानूनों में यह कहीं भी नहीं कहा गया कि किसी हकलाने वाले कि बात न सूनी  जाए या उसके साथ कोई भेदभाव किया जाए. 

सच तो यह है कि हकलाना भी बोलने का एक अलग तरीका है. और एक समावेशी समाज में सभी लोगों को समान अवसर उपलब्ध होते हैं. तो यह हमारी चिंता नहीं है कि हम हकलाते हैं, हमारी चिंता सिर्फ इतनी होनी चाहिए कि हम अपनी कोशिशों से हकलाहट के बाबजूद सार्थक संवाद कर सकें. एक ऐसा संवाद जिसे लोग समझ पाएं. बस. . . !  
 
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Amitsingh Kushwah,
Bhopal (MP) 
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