December 2, 2012

3 December : A Special article on International Day of Persons with Disabilities


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विकलांगों के साथ चौतरफा भेदभाव

आधुनिक युग में मुक्ति आंदोलनों, स्वाधीनता संग्रामों ने लोकतांत्रिक समाज की अवधारणा को जन्म दिया और राष्ट्र राज्य का अभ्युदय भी इसी प्रक्रिया का अंग था। द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के पश्चात राष्ट्र राज्यों ने एक लोक कल्याणकारी भूमिका निभाने का मन बनाया था - आजाद भारत भी उसमें शामिल था।

महात्मा गांधी, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस तथा स्वाधीनता संग्राम में अर्जित मूल्य, भारतीय संविधान, सभी का यह मानना तथा कहना था कि समाज के कमजोर, गरीब तथा अलग-थलग पड़े हिस्से को विशेष महत्व तथा प्राथमिकता दी जाए।

स्वाधीनता के पश्चात इस दिशा में पहल भी की गई। कमजोर वर्ग के उत्थान के लिए नियम-कानून और योजनाएं बनाई गईं। काफी सीमा तक उन पर अमल भी हुआ परंतु शारीरिक और मानसिक रूप से चुनौतीपूर्ण तबके पर सरकार तथा समाज का ध्यान कम ही जा पाया। बेहतरी और सुविधाओं से जुड़ी घोषणाएं तो हुईं परंतु समाज के इस तबके तक उसका लाभ नहीं पहुंच पाया और ना ही समाज की सोच में कोई बदलाव आया। इच्छाशक्ति की कमी तथा सत्ता प्रतिष्ठान और उसके कारिंदों की सोच इसका मूल कारण रही है।

यदि हम विकलांगों की वर्तमान दशा पर विचार करें तो सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के अथक प्रयास के बावजूद अभी तक हमारे देश में विकलांगों को शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास की बेहतर सेवाएं उपलब्ध करा पाने की योजनाएं अपेक्षित सफल नहीं हो पाई हैं। इस बात में कोई शक नहीं होना चाहिए कि इन सामूहिक प्रयासों की वजह से ही स्थिति में पहले की तुलना में कुछ बदलाव देखने को मिलता है।

विकलांगों के कल्याण की राह में सबसे बड़ी बाधा समाज में विकलांगता के प्रति व्याप्त अंधविश्वास और अज्ञानता है। भारत में ग्रामीण क्षेत्रों में विकलांगता का प्रतिशत शहरी क्षेत्रों की तुलना में काफी अधिक है। कारण, गरीबी, कुपोषण और पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है। दुर्भाग्यवश विकलांगता के लिए प्रकृति के अन्याय को दोषी ठहराया जाता है जबकि इसके पीछे शत-प्रतिशत मानवीय कारक ही जिम्मेदार हैं। आज भी हमारे देश में गर्भवती महिलाओं के स्वास्थ्य, उचित पोषण और सुरक्षित प्रसव की सुविधाओं का अभाव है, ऐसी स्थिति जन्म लेने वाले बच्चे में विकलांगता होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है।

विकलांगता को छुपाने की प्रवृत्ति के चलते सही समय पर विकलांग बच्चों की पहचान हो ही नहीं पाती, जिससे उनका पुनर्वास कार्यक्रम बुरी तरह से प्रभावित होता है और वे अपनी बची हुई शेष क्षमताओं का इस्तेमाल कर आत्मनिर्भर बनने की दिशा में आगे नहीं बढ़ पाते। यह विडम्बना है कि 80 प्रतिशत शिक्षा, प्रशिक्षण और पुनर्वास सेवाओं की उपलब्धता शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है, जबकि विकलांगों का एक बड़ा हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में है। विकलांगों के लिए उपलब्ध व्यावसायिक प्रशिक्षण और स्वरोजगार के साधनों की स्थिति तो और भी चिंताजनक है।

देश में केन्द्रीय स्तर पर मुख्य आयुक्त निःशक्तजन और राज्यों में आयुक्त निःशक्तजन के कार्यालयों को निःशक्त व्यक्ति अधिनियम 1995 का पालन सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। इससे इन आयुक्तों का कार्यक्षेत्र सीमित हो गया है और ये विकलांगों के अधिकारों के संरक्षण के लिए अक्षम साबित हो रहे हैं। देश और राज्यों में हर वर्ग के अधिकारों के संरक्षण के लिए विभिन्न आयोगों का गठन किया गया है, लेकिन विकलांगों के लिए अलग आयोग के गठन पर केन्द्र और राज्य सरकारों की चुप्पी चिंताजनक विषय है। इसी तरह केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा विकलांगों के कल्याण के लिए पृथक मंत्रालय या विभाग बनाने की ओर भी ध्यान नहीं दिया गया। हालांकि यह खुशी की बात है कुछ राज्यों में विकलांग कल्याण विभाग काम कर रहे हैं।

यदि हम विकलांगों की वर्तमान स्थिति पर विचार करें तो यह कहने में कोई संकोच नहीं होगा कि आजादी के 60 वर्षों के बाद भी विकलांगों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने में हम असफल रहे हैं। लोकतंत्र के नाम पर स्थापित सत्ता प्रतिष्ठानों में विकलांगों की उपस्थिति पर कभी कोई विचार नहीं किया गया। राजनीतिक दल कभी किसी विकलांग प्रत्याशी को चुनाव के मैदान में नहीं उतारते, नेता अपने चुनावी वायदों में विकलांगों का जिक्र नहीं करते, शायद इसलिए कि उन्हें विकलांगों में वोट बैंक नहीं दिखाई देता। वहीं दूसरी ओर समाज में आज भी विकलांगों को दया या घृणा के पात्र के रूप में देखा जाता है। वे चैतरफा भेदभाव के शिकार हैं। विकलांग महिलाओं को विकलांग पुरूषों की अपेक्षा कहीं ज्यादा उपेक्षा का कड़वा घूंट पीना पड़ रहा है।

समाज की मुख्यधारा में शामिल न हो पाने का एक बड़ा कारण विकलांगों की समाज में स्वीकृति न हो पाना है। जब तक समाज का वो तबका जो कि किसी न किसी रूप से विकलांगों के जीवन को प्रभावित करता है इनकी मौजूदगी को स्वीकार नहीं करेगा तब तक किसी भी तरह के बदलाव की कल्पना करना भी बेमानी ही होगा। जानकारी के अभाव में ज्यादातर लोग ये मानने को तैयार नहीं होते कि विकलांग व्यक्ति भी उन्हीं की तरह से गुणवत्तापूर्वक कार्यों को सम्पन्न कर सकते हैं। बड़ी संख्या में विकलांगों को बिना उनकी क्षमताओं को परखे हुए ही रोजगार के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाता है, क्योंकि वे विकलांग हैं। कहीं-कहीं तो साक्षात्कार के लिए आमंत्रित नहीं किया जाता। हकीकत में ऐसा नहीं है आज नई-नई तकनीकों का इस्तेमाल करते हुए विकलांग लोग भी उसी तरह से तमाम कार्य कर सकते हैं जैसे कि एक आम आदमी करता है।

आज जरूरत इस बात की है कि समाज को इनके प्रति जागरूक बनाने के साथ-साथ इनको समान अवसर और कौशल दिलाया जाए। विकलांगों को दया नहीं, बल्कि अवसरों की उपलब्धता की जरूरत है जिससे वे अपनी उपयोगिता भी सिद्ध कर सकें और समाज की मुख्यधारा से जुड़ सकें। विकलांगों में इन उपलब्ध अवसरों में अपनी भूमिका निभा सकने योग्य क्षमता पैदा करने की जिम्मेदारी हम सबको उठानी होगी। विकलांगों को न सिर्फ समाज में समान अवसर, पूर्ण भागीदारी और उनके अधिकार मिलें बल्कि शिक्षा, रोजगार, सामाजिक सुरक्षा और बाधामुक्त वातावरण भी मिले। 

- अमितसिंह कुशवाह,
मध्य प्रदेश  
0 9 3 0 0 9 3 9 7 5 7 

1 comment:

Satyendra said...

Great write up, Amit. I have seen much more sensitivity in Canada- For example, there is marked parking lot for people using wheel chairs. And these special spots are NEVER used by regular people.. Of course if they did, they will be fined..
I think we need to learn these kind of things from West, instead of dress style and eating Pizza! Just my opinion..