कल मैं एक मंदिर में गया था। वहां पर कई
भिखारी बैठे थे। एक महिला ने झल्लाकर कहा- तुम लोगों को भीख मांगने में
शर्म नहीं आती है। कुछ काम क्यों नहीं करते? हालांकि भिखारियों को यह बात
सुनकर कोई फर्क नहीं पड़ा।
मैंने देखा कि भिखारियों को भीख मांगने में जरा भी डर, शर्म और झिझक महसूस नहीं होती। वे खुलेआम भीख मांगते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं, क्योंकि वे मन से स्वीकार कर लेते हैं कि अब भीख मांगना ही बेहतर है। अपनी गरीबी और लाचारी को मन से स्वीकार करने के बाद भीख मांगने का डर, शर्म और झिझक खत्म हो जाती है शायद!
क्या हम हकलाने वाले भिखारियों से भी कुछ सीख सकते हैं? उत्तर आसान है, क्यों नहीं? टीसा में हकलाहट के बारे में सबकुछ जानने और सीखने के बाद खुलकर लोगों से बातचीत करने का डर, शर्म और झिझक नहीं खत्म होती है। यह इसलिए होता है कि हमारे अन्दर कहीं न कहीं हकलाहट की स्वीकार्यता को लेकर संशय की स्थिति होती है। हम हकलाहट को स्वीकार ही नहीं कर पाते, आत्मसात नहीं कर पाते।
एक और उदाहरण देखिए। डोर टू डोर मार्केटिंग और सेल करने के लिए युवक/युवतियां घर-घर जाकर दस्तक देते हैं। अपने प्रोडक्ट की खूबियां बताते हैं। अक्सर होता यह है कि लोग उनकी बात को सुनने के लिए राजी नहीं होते, अपमान और तिरस्कार किया जाता है, सामान खरीदना तो दूर की बात है। तो क्या डोर टू डोर मार्केटिंग और सेल का बिजनेस बंद हो गया? नहीं, बल्कि यह और तेजी से आगे बढ़ रहा है।
यह सब साहसी और चुनौतियों का सामना करने वाले लोगों की मेहनत का ही परिणाम है। अगर दिनभर में एक भी आइटम नहीं बिका तो इसमें निराश नहीं होना, हो सकता है कि अगले दिन ज्यादा आइटम बिक जाएं।
जब शुरू में हम कोई काम करते हैं तो झिझक महसूस होती है। लोग क्या कहेंगे? लोग क्या सोचेंगे? मैं यह काम कर पाउंगा या नहीं। धीरे-धीरे जब आप एक-दो बार कोई काम कर लेते हैं तो साहस खुद ब खुद आ जाता है। फिर आप खुद आगे होकर काम करने लगते हैं।
हकलाहट पर वर्क करना और लोगों से हकलाहट पर बातचीत करना बहुत ही आनन्ददायी और रूचिकर कार्य है। बस, जरूरत है एक बार हिम्मत करने की। डर, शर्म और झिझक के चोले को उतार फेंकने की।
कलाकार जब स्टेज पर अपनी परर्फामेन्स देते हैं तो सिर्फ अपने काम पर ही उनका ध्यान रहता है, वे अपनी प्रस्तुति को बेहतर बनाने की पूरी कोशिश करते हैं। उन्हें इससे ज्यादा मतलब नहीं होता कि पता नहीं लोग क्या कहेंगे? जब आप लोगों से जुड़ते जाते हैं तो सबकुछ करना बहुत ही सहज हो जाता है।
कई पढ़े-लिखे युवक सोचते हैं कि मैं इतना शिक्षित होकर क्यों छोटा काम क्यों करूं? लेकिन छोटे समझे जाने वाले व्यवसाय या जाब को शुरू करने के बाद आप शर्म को भूलते जाते हैं।
जीवन में सारा खेल शर्म, डर और झिझक का ही है। जितना इनका साहस के साथ सामना करेंगे, उतना ही जीवन आसान और आनन्द से परिपूर्ण होगा। जरा सोचिए, आप बचपन से हकलाते आ रहे हैं, लोग आपके बारे में जानते हैं कि आप हकलाते हैं, फिर हकलाहट पर खुलकर बातचीत करने में कैसी शर्म?
- अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
09300939758
मैंने देखा कि भिखारियों को भीख मांगने में जरा भी डर, शर्म और झिझक महसूस नहीं होती। वे खुलेआम भीख मांगते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं, क्योंकि वे मन से स्वीकार कर लेते हैं कि अब भीख मांगना ही बेहतर है। अपनी गरीबी और लाचारी को मन से स्वीकार करने के बाद भीख मांगने का डर, शर्म और झिझक खत्म हो जाती है शायद!
क्या हम हकलाने वाले भिखारियों से भी कुछ सीख सकते हैं? उत्तर आसान है, क्यों नहीं? टीसा में हकलाहट के बारे में सबकुछ जानने और सीखने के बाद खुलकर लोगों से बातचीत करने का डर, शर्म और झिझक नहीं खत्म होती है। यह इसलिए होता है कि हमारे अन्दर कहीं न कहीं हकलाहट की स्वीकार्यता को लेकर संशय की स्थिति होती है। हम हकलाहट को स्वीकार ही नहीं कर पाते, आत्मसात नहीं कर पाते।
एक और उदाहरण देखिए। डोर टू डोर मार्केटिंग और सेल करने के लिए युवक/युवतियां घर-घर जाकर दस्तक देते हैं। अपने प्रोडक्ट की खूबियां बताते हैं। अक्सर होता यह है कि लोग उनकी बात को सुनने के लिए राजी नहीं होते, अपमान और तिरस्कार किया जाता है, सामान खरीदना तो दूर की बात है। तो क्या डोर टू डोर मार्केटिंग और सेल का बिजनेस बंद हो गया? नहीं, बल्कि यह और तेजी से आगे बढ़ रहा है।
यह सब साहसी और चुनौतियों का सामना करने वाले लोगों की मेहनत का ही परिणाम है। अगर दिनभर में एक भी आइटम नहीं बिका तो इसमें निराश नहीं होना, हो सकता है कि अगले दिन ज्यादा आइटम बिक जाएं।
जब शुरू में हम कोई काम करते हैं तो झिझक महसूस होती है। लोग क्या कहेंगे? लोग क्या सोचेंगे? मैं यह काम कर पाउंगा या नहीं। धीरे-धीरे जब आप एक-दो बार कोई काम कर लेते हैं तो साहस खुद ब खुद आ जाता है। फिर आप खुद आगे होकर काम करने लगते हैं।
हकलाहट पर वर्क करना और लोगों से हकलाहट पर बातचीत करना बहुत ही आनन्ददायी और रूचिकर कार्य है। बस, जरूरत है एक बार हिम्मत करने की। डर, शर्म और झिझक के चोले को उतार फेंकने की।
कलाकार जब स्टेज पर अपनी परर्फामेन्स देते हैं तो सिर्फ अपने काम पर ही उनका ध्यान रहता है, वे अपनी प्रस्तुति को बेहतर बनाने की पूरी कोशिश करते हैं। उन्हें इससे ज्यादा मतलब नहीं होता कि पता नहीं लोग क्या कहेंगे? जब आप लोगों से जुड़ते जाते हैं तो सबकुछ करना बहुत ही सहज हो जाता है।
कई पढ़े-लिखे युवक सोचते हैं कि मैं इतना शिक्षित होकर क्यों छोटा काम क्यों करूं? लेकिन छोटे समझे जाने वाले व्यवसाय या जाब को शुरू करने के बाद आप शर्म को भूलते जाते हैं।
जीवन में सारा खेल शर्म, डर और झिझक का ही है। जितना इनका साहस के साथ सामना करेंगे, उतना ही जीवन आसान और आनन्द से परिपूर्ण होगा। जरा सोचिए, आप बचपन से हकलाते आ रहे हैं, लोग आपके बारे में जानते हैं कि आप हकलाते हैं, फिर हकलाहट पर खुलकर बातचीत करने में कैसी शर्म?
- अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
09300939758
10 comments:
bhout he aacha post, lakin mujhe aapka anubhav uss bhikari ne accept kar liya ki mujhe bheek mahngne ke alwaa koi aur rasta nhi essliye voh aage bina darre bheek mangega...mujhe yeh baat huzam nhi hui ( maaf kijiyega yeh mere apna personal perception hain )
Its very good and thought provoking post..keep overwhelming us by writing such nice posts.
Maja aa gaya. Bahut sach. Agar ham kuchh pal ke liye apne "aham" (ego) ke pare uth payen, to us bhikari se bhi kuchh seekh sakte hai. Maine bachpan me ek kahani padhi thi jisme ek sadhak ke 24 guru the- jinme Bagula, kutta, aadi bhi the..
कपिल जी, मैंने सिर्फ एक उदाहरण दिया है। हमारे समाज में अनेक विसंगतियां हैं जिन्हें हम आसानी से बदल नहीं सकते। भीख मांगना भी इनमें से एक है। मैं भीख मांगने की आदत का समर्थन नहीं करता, बल्कि भिखारी को देखकर कुछ अच्छा सीखने की ओर संकेत किया गया है। हकलाहट की स्वीकार्यता, वह भी खुलकर, शर्म को भूलकर।
Acceptance is so difficult because stammering by nature happens only sometime. Therefore we keep on hoping that one day it will go away completely and forever. We also keep on listening and believing such stories: so and so got totally cured by doing this or visiting XYZ....
Butwho can deny what IS? And how long? Who can say-there is no sun at noon? And what purpose does it serve? By denying, we only generate shame and fear - and make our lives more difficult.. it is a lot easier to say: yes, I stammer and I am working on my communication skills, I am helping others who are facing the same issue... etc etc
pespected amit ji your thought definite correct. i am also a stemmer.i will try.manoj vedi bikaner rajasthan
true sir...
itna khula dimaag rakhne se aadhi se jyaada stammering to apne aap hi chali jaayegi.
ek baar hum ye maan le hum jaise h sabse behtar h to haklahat kuch h he nahi phir.
I totally agree with beggar example and yh baat b sach hai ki hum yh accept nai kr paate kI v r stammerer. Once v accept this toh sb kuch easy ho jaega . Jo fear hmare maan mai hai .. Bss vo nikal jae
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