- गौरव दत्त (यमुना नगर, हरियाणा )
दर्द इतना है सीने में कि ये आंसू रूकते नहीं,
जितनी भी कोशिश कर लो, ये बहते मोती थमते नहीं,
न जाने कब से कैद हैं आंसू मेरे दिल में,
बस, बाहर निकलने की वजह ढूढ़ा करते हैं,
गुमसुम और तन्हा है ये जिन्दगी,
एक नई राह तलाशा करती है,
नई सुबह, नई किरण देखने की आस में,
आंखें आसमान को देखा करती हैं,
बचपन में सिर झुकता था बड़ों या प्रभु के चरणों पर,
आज इन बेबस हालातों के आगे झुकता है,
लोग कहते हैं हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती,
पर आज भी मैं उस हिम्मत को ढूढ़ा करता हूं,
न जाने कब पैदा होगी वह हिम्मत जिसकी बात लोग अक्सर किया करते हैं,
हताशा इतनी भी नहीं कि इस जिन्दगी से फना हो जाउं
तलाश जारी है इस उम्मीद में की नई राह मिलेगी,
बिखर गई है जिन्दगी इन मुश्किल हालातों में,
न जाने कितनी सदियां लगेंगीं फिर से इकटठा करने में,
हंसते हैं लोग हम पर, और न जाने क्या-क्या कहते हैं,
पर वे नहीं जानते कि किन मुश्किलों से हम रोज गुजरा करते हैं,
माना कि बेबस, मजबूर, मुश्किल हालातों में घिरे हैं,
पर आशा कि लौ आज भी अपने सीने में लिए घूमते हैं,
गुजर गए हैं न जाने कितने दिन यूं आंसू बहते,
सोचते हैं क्या यही है वो दुनिया,
जहां लोग हंसते, गुनगुनाते जिन्दगी बिताते हैं,
हमने तो दर्द को गुनगुनाया है अभी तक,
पता नहीं कोई और भी धुन गुनगुना पाएंगे या नहीं,
छट जाएंगे ये आंधी और तूफान के बादल कभी न कभी,
फिर होगी नई सुबह, हंसते-खेलते उमंग से भरी,
खिलेंगे नए फूल और कलियां, दौड़ेगी जिन्दगी ठंडी हवाओं की तरह,
और हंसेगी जिन्दगी बचपन की तरह...
दर्द इतना है सीने में कि ये आंसू रूकते नहीं,
जितनी भी कोशिश कर लो, ये बहते मोती थमते नहीं,
न जाने कब से कैद हैं आंसू मेरे दिल में,
बस, बाहर निकलने की वजह ढूढ़ा करते हैं,
गुमसुम और तन्हा है ये जिन्दगी,
एक नई राह तलाशा करती है,
नई सुबह, नई किरण देखने की आस में,
आंखें आसमान को देखा करती हैं,
बचपन में सिर झुकता था बड़ों या प्रभु के चरणों पर,
आज इन बेबस हालातों के आगे झुकता है,
लोग कहते हैं हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती,
पर आज भी मैं उस हिम्मत को ढूढ़ा करता हूं,
न जाने कब पैदा होगी वह हिम्मत जिसकी बात लोग अक्सर किया करते हैं,
हताशा इतनी भी नहीं कि इस जिन्दगी से फना हो जाउं
तलाश जारी है इस उम्मीद में की नई राह मिलेगी,
बिखर गई है जिन्दगी इन मुश्किल हालातों में,
न जाने कितनी सदियां लगेंगीं फिर से इकटठा करने में,
हंसते हैं लोग हम पर, और न जाने क्या-क्या कहते हैं,
पर वे नहीं जानते कि किन मुश्किलों से हम रोज गुजरा करते हैं,
माना कि बेबस, मजबूर, मुश्किल हालातों में घिरे हैं,
पर आशा कि लौ आज भी अपने सीने में लिए घूमते हैं,
गुजर गए हैं न जाने कितने दिन यूं आंसू बहते,
सोचते हैं क्या यही है वो दुनिया,
जहां लोग हंसते, गुनगुनाते जिन्दगी बिताते हैं,
हमने तो दर्द को गुनगुनाया है अभी तक,
पता नहीं कोई और भी धुन गुनगुना पाएंगे या नहीं,
छट जाएंगे ये आंधी और तूफान के बादल कभी न कभी,
फिर होगी नई सुबह, हंसते-खेलते उमंग से भरी,
खिलेंगे नए फूल और कलियां, दौड़ेगी जिन्दगी ठंडी हवाओं की तरह,
और हंसेगी जिन्दगी बचपन की तरह...
5 comments:
गौरव जी, बधाई। बहुत सुंदर कविता है। भावों को आपने बहुत ही सरल शब्दों में व्यक्त किया है। धन्यवाद!
गोरव जी, आपमे तो एक कवि छुपा हुआ है , अपनी प्रतिभा को और तरासिये और हकलाहट से बडी लाईन खींच डालिये, हकलाहट वाली लाईन अपने आप छोटी हो जायेगी ।
If I could write like this and touch people's hearts - I will sincerely bless my stammering..No, this is not just a poetic sentiment..
Kya baat hai gaurav bhai...bhut achi poem hai...and apke vichaar hai..!!
Bhut khoob..!!
Gaurav ji, aap ko TISA me rah mil chuki hai. Ab aap aasoo ko vyarth na gavaye. Is anmol energy ko use kare.TISA ki technique ko use kare or phir dekhe aap ki manjil paas hi hai.
Good luck.
Be in touch with TISA.
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