April 24, 2012

गलत उम्मीदों से तौबा करें . . . !

इस साल १ जनवरी को नए साल की शुरुआत बहुत ही दुखद घटना से हुई थी. हुआ यह की १ जनवरी को नए साल की शुभकामनाएं देने के लिए कानपुर से मेरे एक रिश्तेदार ने फोन किया. मै हकलाहट के कारण ठीक से बोल नहीं पा रहा था तो उन्होंने कहा की आप अभी सो रहे थे क्या? मै बोला की हाँ. और मैंने उनसे कहा की मै बाद में आपको काल करता हूँ. फिर मैंने तुरंत फोन काट दिया.

इसके बाद मै बहुत निराश हो गया. मन में विचार आने लगा- धिक्कार है मेरी जिन्दगी पर, मैं ठीक से किसी से बात तक नहीं कर पाता. मै खुद को कोसने लगा- मुझे कैसर हो जाए, कोई बड़ी बीमारी हो जाए जिससे मै मर जाऊं, तो ज्यादा ठीक रहेगा. 

हम हकलाने वाले लोग अकसर इन हालातों से गुजरते हैं. यह इसलिए होता है क्योकि हम बचपन से यही जानते आएं हैं की धाराप्रवाह बातचीत करना बहुत जरूरी है और यही सबसे बड़ा गुण है. जब हम किसी से बात करते हैं तो सामने वाले से यह उम्मीद करते हैं की वह हमारी बात को ध्यान से सुने, हमें सपोर्ट करे, अगर ऐसा नहीं होता तो हम दुखी तो जाते हैं. हम खुद से भी यह अपेछा करते हैं की हम किसी प्रकार बिना रुकावट के बोल पाएं, यह नहीं हो पाता तो हम खुद को कोसने लगते हैं.

हम यह भूल जाते हैं की सिर्फ बोलना ही सम्प्रेषण का एक मात्र मोड नहीं है. हम लिखकर, अपने हाव-भाव, आपनी आँखों, अपने हाथों आदि से बिना बोले दिनभर संवाद करते हैं. लिखी हुई या प्रिंट सामग्री का महत्त्व तो बहुत ज्यादा होता है, बोलने से भी ज्यादा. तो फिर अगर हमें सम्प्रेषण के सिर्फ एक में माध्यम बोलने में थोडा चुनौती का सामना करना पड़ रहा है तो इसमें निराश होने वाली क्या बात है?      

हम इस निराशा से बच सकते हैं अगर हम दूसरों से और अपने से गलत उम्मीदें करना बंद कर दें. मै यह नहीं कह रहा की हम हमेशा हकलाते ही रहें. बल्कि हम एक इमानदार कोशिश करें की हमें हकलाहट को नियंत्रित करके बोलने की छमता को विकसित करना हैं, लेकिन हाँ इस कोशिश में थोडा चुनौतियां सामने आएंगी, उनका डटकर सामना करें. 

- अमित सिंह कुशवाह 
0 9 3 0 0 9 - 3 9 7 5 8 

3 comments:

Satyendra said...

मेरा भी यही अनुभव है कि टेक्नीकों से ज्यादा महत्त्व हमारे ऐटीट्यूड का है- अगर हम यह मान कर चल रहे हैं कि बाकी दुनिया का कुछ भी हो, मेरी जिन्दगी फूलों की सेज ही होनी चाहिये, तो हकलाना ना सही, कोई दूसरी ही 'समस्या' हमारे जीवन को निराशा से भर देगी.. हमे मानना पडेगा कि जीवन मे सँघर्षों की केन्द्रीय भूमिका है.. सँघर्ष हमें निखारते हैँ, सँवारते हैँ, हमे वह बनाते हैँ जो हम अन्दर से हैँ, मगर दिख नही रहे..शक्तिपुँज, शास्वत आत्मा, सम्पूर्ण, समर्थ...
सुन्दर लेख के लिये साधुवाद!

Anupinder Singh said...

this article is very good and eye opening....keep it up amit ji....

J P Sunda said...

Saty wachan amit ji. Aur main to kahunga ki agar hum thoda bura mahsus bhi kartae hain to wusae bhi humae allow karna chaiye aur phir agae bad jana chaiye.