हर साल स्वाधीनता दिवस पर स्कूल में कई इवेन्ट्स होते थे। मेरे पास विचार तो थे, पर अभिव्यक्त करने की क्षमता नहीं। भाषण प्रतियोगिता, वाद-विवाद प्रतियोगिता में मुझे ज्यादा रूचि रहती। पर अफसोस हकलाहट के कारण कभी इनमें भाग नहीं ले सका। जब इस तरह के आयोजन होते तो मन में बहुत निराशा उत्पन्न होती। काश! मैं भी दूसरे बच्चों की तरह माइक पर खड़े होकर बोल पाता।
कालेज लाइफ में भी ऐसा चलता रहा। किसी प्रोग्राम में शामिल नहीं हंुआ। हां, फाइनल ईयर में एक बार इंटर कालेज निबंध लेखन प्रतियोगिता में शामिल हुआ और पुरस्कार जीता। मेरे लिए यह जीत कोई ज्यादा अहम नहीं थी। मैं तो बोलना चाहता था। बोलकर खुद को अभिव्यक्त करना चाहता था।
अपनी जिन्दगी के 25 साल इस भ्रम में जीता रहा कि भारत में शायद कहीं न कहीं हकलाहट का 100 प्रतिशत क्योर होगा। किसी बड़े व नामी स्पीच थैरेपिस्ट के पास कभी जाउंगा और मेरी हकलाहट कुछ ही महीने में छूमंतर हो जाएगी।
यह मेरा सौभाग्य रहा कि हकलाहट का क्योर खोजते हुए मुझे टीसा से सम्पर्क करने का मौका मिला। टीसा से जुड़ने पर मेरे जीवन में वह चमत्कारिक परिवर्तन हुआ जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी।
हकलाहट के बारे में एक नए दृष्टिकोण के साथ सोचने-विचारने और अपनी स्पीच पर वर्क करने की व्यवहारिक प्रेरणा मिली। आज मैं खुलकर कह सकता हूं कि मैं आजाद हूं।
हकलाहट की गिरफत में जिन्दगी बेमानी हो चली थी। जरा सा हकलाहट होने पर ऐसा लगता जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो। कोई हकलाहट को सुनकर हंस तो तन-बदन पर लाग लग जाती। यह ऐसी गुलामी थी जिससे निकलने का रास्ता टीसा ने सुझाया।
यूं तो हमारा देश 1947 में आजाद हो चुका है, लेकिन हम हकलाने वाले खुद को आजाद महसूस नहीं कर पाते। स्वयं को दूसरों का नौकर समझते हैं। जब भी बोलना हो दूसरे की मर्जी के मुताबिक धाराप्रवाह बोलो। लोगों का ध्यान रखो कि आपके हकलाने की जानकारी उन्हें न हो, जैसे आप कोई अपराध कर रहे हों हकलाकर?
सच में हकलाहट एक मानसिक दासता है जिससे हकलाने वाला व्यक्ति ही मुक्त हो सकता है। आज अगर मेरी हकलाहट पर कोई हंसता है या मजाक बनाता है तो मुझे जरा भी अफसोस और दुःख नहीं होता।
अरे! जब मैं आजाद हूं तो दूसरों की चिंता क्यों करूं। हमेशा उनके हिसाब से बातचीत क्यों करूं? हकलाहट का डर, शर्म और चिंता का गुलाम रहने से कोई फायदा नहीं होने वाला। इससे बाहर निकलना एक बेहतर रास्ता है।
मैं सोचता हूं कि यदि हकलाहट को छिपाते हुए भी बोलूंगा तो भी लोग यह तो जानते ही है कि अमित हकलाता है। वास्तव में हम एक सफेद झूठ का सहारा लेते हैं। लोग जानते हैं कि हम हकलाते हैं, उसके बावजूद भी हकलाने को छिपाने की भरसक कोशिश करते हैं हम लोग।
हमें हकलाहट को लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है। बस, प्रयास करना है कि हम हकलाहट के पीछे छिपे डर, शर्म और छिपाने की आदत/गुलामी से आजाद हो जाएं। जब आप इन सबसे आजाद हो जांएगे तो हकलाने पर भी आपको गम नहीं होगा। फिर आप खुलेमन से अपनी स्पीच पर वर्क कर पाएंगे।
सभी पाठकों को स्वतंत्रतता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
--
अमित 09300939758
कालेज लाइफ में भी ऐसा चलता रहा। किसी प्रोग्राम में शामिल नहीं हंुआ। हां, फाइनल ईयर में एक बार इंटर कालेज निबंध लेखन प्रतियोगिता में शामिल हुआ और पुरस्कार जीता। मेरे लिए यह जीत कोई ज्यादा अहम नहीं थी। मैं तो बोलना चाहता था। बोलकर खुद को अभिव्यक्त करना चाहता था।
अपनी जिन्दगी के 25 साल इस भ्रम में जीता रहा कि भारत में शायद कहीं न कहीं हकलाहट का 100 प्रतिशत क्योर होगा। किसी बड़े व नामी स्पीच थैरेपिस्ट के पास कभी जाउंगा और मेरी हकलाहट कुछ ही महीने में छूमंतर हो जाएगी।
यह मेरा सौभाग्य रहा कि हकलाहट का क्योर खोजते हुए मुझे टीसा से सम्पर्क करने का मौका मिला। टीसा से जुड़ने पर मेरे जीवन में वह चमत्कारिक परिवर्तन हुआ जिसकी मैंने कल्पना नहीं की थी।
हकलाहट के बारे में एक नए दृष्टिकोण के साथ सोचने-विचारने और अपनी स्पीच पर वर्क करने की व्यवहारिक प्रेरणा मिली। आज मैं खुलकर कह सकता हूं कि मैं आजाद हूं।
हकलाहट की गिरफत में जिन्दगी बेमानी हो चली थी। जरा सा हकलाहट होने पर ऐसा लगता जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो। कोई हकलाहट को सुनकर हंस तो तन-बदन पर लाग लग जाती। यह ऐसी गुलामी थी जिससे निकलने का रास्ता टीसा ने सुझाया।
यूं तो हमारा देश 1947 में आजाद हो चुका है, लेकिन हम हकलाने वाले खुद को आजाद महसूस नहीं कर पाते। स्वयं को दूसरों का नौकर समझते हैं। जब भी बोलना हो दूसरे की मर्जी के मुताबिक धाराप्रवाह बोलो। लोगों का ध्यान रखो कि आपके हकलाने की जानकारी उन्हें न हो, जैसे आप कोई अपराध कर रहे हों हकलाकर?
सच में हकलाहट एक मानसिक दासता है जिससे हकलाने वाला व्यक्ति ही मुक्त हो सकता है। आज अगर मेरी हकलाहट पर कोई हंसता है या मजाक बनाता है तो मुझे जरा भी अफसोस और दुःख नहीं होता।
अरे! जब मैं आजाद हूं तो दूसरों की चिंता क्यों करूं। हमेशा उनके हिसाब से बातचीत क्यों करूं? हकलाहट का डर, शर्म और चिंता का गुलाम रहने से कोई फायदा नहीं होने वाला। इससे बाहर निकलना एक बेहतर रास्ता है।
मैं सोचता हूं कि यदि हकलाहट को छिपाते हुए भी बोलूंगा तो भी लोग यह तो जानते ही है कि अमित हकलाता है। वास्तव में हम एक सफेद झूठ का सहारा लेते हैं। लोग जानते हैं कि हम हकलाते हैं, उसके बावजूद भी हकलाने को छिपाने की भरसक कोशिश करते हैं हम लोग।
हमें हकलाहट को लेकर परेशान होने की जरूरत नहीं है। बस, प्रयास करना है कि हम हकलाहट के पीछे छिपे डर, शर्म और छिपाने की आदत/गुलामी से आजाद हो जाएं। जब आप इन सबसे आजाद हो जांएगे तो हकलाने पर भी आपको गम नहीं होगा। फिर आप खुलेमन से अपनी स्पीच पर वर्क कर पाएंगे।
सभी पाठकों को स्वतंत्रतता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।
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अमित 09300939758
2 comments:
बहुत सही विश्लेषण किया है आपने..
इसके लिये काफी गहरी अन्तर्दर्ष्टि की जरूरत है.. धन्यवाद!
ठीक कहा अमित जी आपने यही हमारे साथ भी होता था
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