July 24, 2013

चुनौतीपूर्ण समय में हकलाहट पर नियंत्रण!

हम सब अक्सर एक सामान्य रूटीन में अपना जीवन व्यतीत करते है। सुबह से लेकर रात तक हमारी दिनचर्या हर दिन एक समान रहती है। क्या कभी आपने इससे बाहर निकलकर अपनी स्पीच पर आए प्रभाव पर गौर किया है? क्या आपको यह अहसास हुआ कि मुश्किल या चुनौतीपूर्ण हालातों में आपकी स्पीच डगमगा जाती है? आप उस पर नियंत्रण नहीं रख पाते है!

हममें से अधिकतर हकलाने वाले साथियों ने जरूर ऐसी परिस्थितियों का सामना किया होगा या आज भी करते होंगे। जरा सोचिए कि, आपके परिवार में कोई बड़ा सामाजिक समारोह जैसे शादी है और सारी जिम्मेदारी आप पर है। ऐसे समय में दूसरे लोगों से बार-बार बातचीत करना, हर व्यवस्था समय पर होने की चिंता! ऐसे में स्पीच को नियंत्रित रखकर बातचीत करना क्या संभव हो पाएगा? आप संभवतः सबकुछ भूलकर अपनी बात जल्दी कहने की कोशिश करेंगे।



इसी तरह जब आप बेरोजगारी, तनाव, निराशा एवं हताशा के वक्त से गुजर रहे हों तो स्पीच पर काम करना थोड़ा मुश्किल महसूस हो सकता है। वास्तव में यह बात हकलाने वालों के साथ ही दूसरे अन्य लोगों पर भी लागू होता है। कोई भी व्यक्ति सामान्य नहीं रह पाता। अपना धैर्य खो बैठता है।

अब थोड़ा किसी ऐसी घटना को याद करिए जब आपने जल्दी-जल्दी हकलाकर बोलने की भरसक कोशिश की और सही तरीके से अपनी बात बोल भी नहीं पाए या बहुत प्रयास के बाद बोल पाए। इसके बाद आप खुद चिंतन कीजिए कि उस समय जल्दी बोलना बहुत जरूरी था क्या? कई बार आपका जबाव नहीं होगा! ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आपने स्वयं को मुश्किल हालातों में जाने पर असहज बना लिया। यह सबकुछ सहज हो सकता था अगर आप अपने मन पर थोड़ा स्वनियंत्रण करने की कोशिश करते। 

भले ही कितनी भी जल्दी हो आप थोड़ा प्रयास करेंगे तो बोलना ज्यादा सहज और आसान हो जाएगा, बजाय जबरन बोलने के।

जैसे आप टिकट बिन्डो पर खड़े हों, और जल्द ही आपकी ट्रेन आने वाली हो। तब आप शीघ्रता से बोलकर टिकट लेने की कोशिश करेंगे। आपको बोलना भोपाल है, लेकिन आप भो...भो...भो... पर ही अटके रहेंगे। इसकी अपेक्षा आप यदि थोड़ा धैर्य से किसी स्पीच तकनीक का प्रयोग करते हुए बोलेंगे तो यह निश्चित ही संभव है कि सही समय पर बोलकर टिकट प्राप्त कर लेंगे और आपकी ट्रेन भी मिस नहीं होगी।

हम जैसे ही अपने दैनिक जीवन से थोड़ा सा भी दूर होते हैं, तो हमें घबराहट होने लगती है, बेचैनी बढ़ जाती है। 

मैं जब भी दिल्ली जाता हूं, तो जैसे ही आगरा स्टेशन से ट्रेन आगे बढ़ती है तो मेरे दिल की धड़कनें तेजे होने लगती हैं और दिल्ली आते-आते तक एक अजीब सी बेचैनी होने लगती है। अनजान शहर, अनजान लोगों को देखकर। यह अक्सर हर किसी के साथ होता है। 

अब यदि स्टेशन से बाहर निकलकर बस या मेट्रो स्टेशन के बारे में जानकारी लेना हो तो हकलाहट पर कंट्रोल करना दिमाग से उतर ही जाता है, क्योंकि उस समय अपनी बात कहना या जानकारी जल्दी से लेना ज्यादा महत्वपूर्ण समझते है।

और जैसे ही कोई परिचित व्यक्ति, पहले देखा गया स्थान हमारे सामने होता है तो हम एकदम सहज होने लगते हैं। घबराहट कम होने लगती है।

जीवन में सुख, दुःख और आनन्द का समय आता-जाता रहता है। कोई भी चीज स्थाई नहीं रह सकती। ऐसे समय में हमें सिर्फ एक ही सहारा है आत्मनियंत्रयण, स्वनियंत्रण। जिसे अपनाकर हम मुश्किल समय में भी अपनी स्पीच पर नियंत्रण रख सकते हैं।

- अमित 09300-939-758

5 comments:

Satyendra said...

Very relevant and true. Beautifully expressed..Much thanks!

Mayank Harjika said...

Very well said Amit Ji !! Aapka post padh kar bahut confidence aur positiveness feel karta ha. Aisa hi likhta rahiya ya pratibha aapko upar wala na di hi iska pura labh udhaya.

Anonymous said...

very good post , but very far from reality , more close to idealism . It is not possible to control emotions 100%, just read conversation between great devotee Arjuna and Lord Krishna in GITA, even arjun also asked- how to control mind (mann). When such a great devotee ( lord krishna always remained him), also could not control , then no chance for us to control 100%, so just ACCEPT.

Anonymous said...

But Arjun listened to his friend and lord- and went right ahead into the battle..Accept this too!
Vivek

प्रभु ! कृपा हि केवलम् said...

गीता, श्रीकृष्ण, अर्जुन से एक और character दिमाग मे आ रहा है - " कर्ण "। जिसे श्राप मिला था कि सारी धनुर्विद्या का ज्ञान जरुरत के वक्त भूल जायेगा । ये ज्ञान काम नहीं आ पायेगा ।
हम भी जब जरुरत नहीं हो तो fluent बोलते हैं और जब असल मे जरुरत होती है तो...BLOCK.....COMPLETE BLOCK..........
हम सब PWS भी कर्ण का ही रोल कर रहे हैं जीवन मे |