इंसान के लिए कोई सीमा नहीं होती
एक
साधारण प्रयोग करे| कुछ मक्खियाँ को ले और उन्हें जार में बंद कर दे| कुछ
समय बाद जार से ढक्कन हटाये| आप पाएंगे की एक दो को छोडकर बाकि सब मक्खियाँ
जार की दीवार से चिपकी बैठी है| उनका शरीर और दिमाग मान चूका है की वे कैद
में है और वह से नहीं निकल सकती है|
इसी तरह एक्वेरियम में काम करने वाले लोग आपको बतायंगे
की आप मछलियो को जल के भीतर एक दायरे में बांध सकते है, आप बड़े से कांच के
टेंक में कुछ मछलिया डाले, और टेंक के बिच बीच में कुछ कांच के पारदर्शी
पार्टीशन को लगा दे| कुछ समय बाद इन पार्टीशनो को हटा दे, आप पाएंगे की
मछलिया तैरते हुए उस छोर तक जाती है, जहा पर पहले पार्टीशन थे, और लौट आती
है, उनके दिमाग में यह बात बैठ चुकी होती है की उनका दायरा वही तक है|
इस
तरह के तमाम प्रयोग प्राणिमात्र की समझ की प्रक्रीया के लिहाज से एक बेहद
अहम तथ्य की और इशारा करते है| दर असल किसी चीज के बारे में हमें जैसे
शुरुआती अनुभव होते है हम चीजों की उन्ही शुरुआती अनुभव के आधार पर
व्याख्या करते है, उसी आधार पर हमारा तंत्रिका तंत्र कार्य करने लगता है,
और धीरे धीरे यह प्रक्रीया धारणा के रूप में तब्दील हो जाती है| कोई भी बात
हमारी शुरुआती प्रक्रीया को मजबूत नहीं करती है, वह तंत्रिका तन्त्र तक भी
नहीं जाती है| लिहाजा यदि आप किसी चीज के बारे में यह मानकर चलते है की
ऐसा नहीं हो सकता, तो आपका तंत्रिका तंत्र भी यह स्वीकार नहीं करेंगा|
कई हकलाने वालो के साथ भी यही हुआ होता है जब वे बचपन में धारणा
का विकास हो होता है तो उन्हें हर बात कहने पर नाकारा जाता है, मना किया
जाता है, दोस्त लोग उनका मजाक उड़ाते है, उनपर विश्वास नहीं किया जाता है,
ये धीरे धीरे उनके अंतर्मन में जमते जाती है चिपकते जाती है, और यही धारणा
बन जाते है, हर बात को बोलने पर, पहले उस धारणा से गुजार कर बोलते है, उस
समय हमारा मन दो भाग में बटकर सोचने लगता है एक हिस्सा कहता है की बोल जो
बोल रहा है वो सही तो लग रहा है और बोलना भी जरुरी है तो बोल दे, उसी टाइम
मन का दूसरा हिस्सा कहता है मत बोल अगर ऐसा कहा तो लोग क्या सोचेंगे,
तुम्हारी बात पर यकीन करेंगे या नहीं करेंगे, कही तुम हकला तो नहीं जाओंगे|
तुम्हारा मजाक तो नहीं उडायेगे, आदि आदि, तो उस समय में मन का हिस्सा जो
कॉन्फिडंस होता है चाहे वो पोजिटिव वाला हो या नेगेटिव वाला हो, उसी के कहे
अनुसार चलते है| हम धारणा बना लेते है की में हकला हू , क्योकि बार बार आप
अटक जाते हो आप उसे अपनी बीमारी समझ लेते हो|
हकलाने या सही मायने में कए तो लोग अटक अटक कर बोलने वाले लोग हमेशा नहीं
हकलाते है, जब वे घर में होते है या अपने खास दोस्तों के बीच होते है तो वे
नहीं हकलाते है क्योकि वे उस समय पाजिटिव कॉन्फिडंस वाला मन का हिस्सा
ज्यादा प्रबल होता है, तो हम उस समय नहीं हकलाते है, और जब हमारा नेगेटिव
वाला हिस्सा ज्यादा प्रबल होता है तो हम ज्यदा हकलाते है ये मन के दो
हिस्सों के बीच के द्वन्द का खेल है, तो लोगो के बीच बोलने की आदत डालो और
दरों मत बेफिक्र बोलो|
हकलान अटकना होता है तो भी शर्माओ मत डरो मत बस बोलो आप देखेंगे की
धीरे धीरे आपके मन से ये धारणा खत्म होते जाएँगी, क्योकि अब प्रण लो की
हमें नहीं हकलाना है आज से धारणा खत्म और हम जीवन की वास्तविकता को स्वीकार
करेंगे, की हम हकले है ही नहीं|
(Anil Guhar, Betul)
3 comments:
बहुत खूब अनिल जी, आपने सही व्याख्या की है । हकलाहट उस पतली रस्सी के जैसी है जो हाथी के छोटे से बच्चे के पैर बाँधी जाती है । बच्चा उस को तोड नहीं पाता और बडा होने पर इसलिये कोशिश नही करता क्योकि मन मे धारणा बैठ चुकी है कि रस्सी नही टूट सकती ..........
बहुत अच्छा। बधाई।
anil ji bahut hi badiya ......very good to know that we all pws are becoming more n more knowledgeable about stammering ..like we are doing phd on stammering...:-)
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