मुझे टीसा से जुड़े हुए 3 साल बीत चुका है। इस दौरान हकलाहट की स्वीकार्यता ने मेरे जीवन में आनन्द भर दिया है। शुरू में हकलाहट को दूसरे लोगों के सामने खुलकर स्वीकार करना बड़ा चुनौतीपूर्ण था, लेकिन धीरे-धीरे यह सब करना बहुत ही सरल और सहज हो गया।
पहले मैं खुद को बहुत अभागा, नकारा, असफल समझता था। अपनी हकलाहट के लिए अपने पिता को जिम्मेदार मानता था। अगर कोई मेरी हकलाहट को देखकर हंसता तो मुझे बहुत बुरा लगता, मैं दुःखी हो जाता था। अक्सर समाज के बारे में गलत धारणा रही कि लोग हमारी परेशानी को नहीं समझते, हमें सपोर्ट नहीं करते, हमारा मजाक उड़ाते हैं।
साथ ही मन में यह विचार आता कि अगर कभी धन का इंतजाम हो पाया तो किसी बड़े शहर में जाकर नामी स्पीच थैरेपिस्ट से इलाज करवाउंगा, एक महीने में हकलाहट एकदम ठीक हो जाएगी।
यह एक सुखद संयोग ही रहा कि जब मैं टीसा के सम्पर्क में आया तो सचिन सर से फोन पर काफी सकारात्मक सहयोग और मानसिक संबल मिला। साथ ही इंदौर में ही रह रहे प्रमेन्द्रसिंह बुन्देला के साथ टीसा के स्वयं सहायता समूह का संचालन करने और टीसा की बारीकियों को जानने का मौका मिला।
इन सबने मेरे जीवन को एकदम बदल दिया। कभी हकलाहट को लेकर निराशा के समुद्र में डूबा रहने वाला मैं आज हकलाहट के बारे में दूसरे लोगों को खुलकर बताता हूं। अब हकलाहट को लेकर अपने पिताजी को दोष नहीं देता, क्योंकि वे मेरी हकलाहट के लिए जिम्मेदार नहीं हैं।
एक दूसरा सत्य यह जानने को मिला कि हम हकलाने वाले दूसरे लोगों को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। मैंने जब आम समाज में हकलाहट को स्वीकार करना शुरू किया तो यह पाया कि मात्र 1 प्रतिशत या उससे भी कम लोग हकलाने वाले व्यक्ति को देखकर हंसते हैं। वास्तव में आज सूचना क्रांति के इस युग ने लोगों तक सूचनाएं पहुंचाकर उन्हें विभिन्न विषयों के बारे में सही जानकारी प्रदान की है, और हकलाहट भी उनमें से एक है।
अक्टूबर 2013 में दिल्ली में नेशनल कांन्फ्रेन्स से लौटकर मैं और देहरादून के दो साथी एस.एल.पी. विजयकुमार जी और परमानन्द जी जब वापस जा रहे है थे तो टीसा का बैच देखकर एक पुलिस वाले ने हमसे आगे होकर हकलाहट पर बात की, इसके बाद मैटो स्टेशन पर हम लोगों ने 2 दो युवकों से हकलाहट के बारे में बातचीत की। इससे यह ज्ञात हुआ कि अधिकतर लोग हकलाहट के बारे में काफी हद तक सही जानते हैं। बस जरूरत इस बात की है कि हम लोग स्वयं आगे होकर बात करें।
अब मुझे हकलाहट होती है तो खुद पर गुस्सा नहीं आता। मैं अब हकलाहट को एकदम सहज रूप में लेने लगा हूं। अब फोन पर भी खुद आगे होकर बातचीत करता हूं।
एक दूसरा चमत्कार यह हुआ है कि पहले की अपेक्षा अधिक सामाजिक हो गया हूं। स्वयं लोगों से बातचीत करना, उनकी रूचियों का ध्यान रखना और तारीफ करना। इन सबने मेरे जीवन को बहुत आसान बना दिया है।
हकलाहट को स्वीकार करने से हकलाहट को बार-बार छिपाने की असफल कोशिश करने का प्रयास करना अब बंद कर दिया है। हकलाहट ने जीवन के कई नए और अच्छे पहलुओं के बारे में जानने और समझने का अवसर प्रदान किया है।
हां, मैं हकलाता हूं, मुझे बोलने में हकलाहट होती है, मैं कभी-कभी बोलते समय अटक जाता हूं, ये सभी वाक्य अगर हम अपने जीवन में उतार लें तो जीवन कितना आसान हो जाएगा। मैंने लोगों को हकलाने वाले लोगों के बारे में बहुत कुछ कहते सुना है, वास्तव में लोगों का काम है कहना। अगर आप हकलाते नहीं होते तो भी लोग आपकी कोई दूसरी कमी खोज ही लेते। जरा अपने स्कूल या कालेज के दिनों की याद करिए। हर टीचर का कोई एक विशेष नाम रखते थे। हिटलर, चश्मीस, मोटा और न जाने क्या-क्या।
फिर हकलाहट को लेकर इतना चिन्ता करना मेरे ख्याल में ठीक नहीं है। टीसा से जुड़ने के बाद मैंने हकलाहट के बोझ को अपने सिर से उतार दिया है। अब हकलाहट मेरे जीवन में कोई समस्या नहीं है। हकलाते हुए भी मेरा जीवन बहुत ही आसानी से चल रहा है। कोई रूकावट नहीं है। कोई नुकसान नहीं है।
हकलाहट को स्वीकार करने का मतलब ही यह है कि आपके जीवन में हकलाहट को लेकर दुःख, निराशा का भाव न हो। हकलाहट आपके जीवन में बाधा न हो। हां, नौकरी के मामले में जब आप किसी इंटरव्यू में जाएं तो हो सकता है कि आपको हकलाने के कारण सलेक्ट न किया जाए। लेकिन बार बार कोशिश करने से सफलता से मिलनी ही है।
हकलाहट को स्वीकार करने के बाद आप अपनी स्पीच पर वर्क सहजता के साथ कर पाएंगे। स्पीच तकनीक का इस्तेमाल करना आसान हो जाएगा।
इस प्रकार हकलाहट की स्वीकार्यता सही मायने में हमें आगे बढ़ने का मार्ग दिखाती है। भारत में, हकलाने वाले व्यक्तियों को सही राह दिखाने और सशक्तिकरण की दिशा में टीसा के माध्यम से जो भागीरथी प्रयास किए जा रहे हैं उससे सैकड़ों लोगों की जिन्दगी में एक नया सबेरा आया है, उनकी जिन्दगी रोशन हो गई है।
- अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
09300939758
पहले मैं खुद को बहुत अभागा, नकारा, असफल समझता था। अपनी हकलाहट के लिए अपने पिता को जिम्मेदार मानता था। अगर कोई मेरी हकलाहट को देखकर हंसता तो मुझे बहुत बुरा लगता, मैं दुःखी हो जाता था। अक्सर समाज के बारे में गलत धारणा रही कि लोग हमारी परेशानी को नहीं समझते, हमें सपोर्ट नहीं करते, हमारा मजाक उड़ाते हैं।
साथ ही मन में यह विचार आता कि अगर कभी धन का इंतजाम हो पाया तो किसी बड़े शहर में जाकर नामी स्पीच थैरेपिस्ट से इलाज करवाउंगा, एक महीने में हकलाहट एकदम ठीक हो जाएगी।
यह एक सुखद संयोग ही रहा कि जब मैं टीसा के सम्पर्क में आया तो सचिन सर से फोन पर काफी सकारात्मक सहयोग और मानसिक संबल मिला। साथ ही इंदौर में ही रह रहे प्रमेन्द्रसिंह बुन्देला के साथ टीसा के स्वयं सहायता समूह का संचालन करने और टीसा की बारीकियों को जानने का मौका मिला।
इन सबने मेरे जीवन को एकदम बदल दिया। कभी हकलाहट को लेकर निराशा के समुद्र में डूबा रहने वाला मैं आज हकलाहट के बारे में दूसरे लोगों को खुलकर बताता हूं। अब हकलाहट को लेकर अपने पिताजी को दोष नहीं देता, क्योंकि वे मेरी हकलाहट के लिए जिम्मेदार नहीं हैं।
एक दूसरा सत्य यह जानने को मिला कि हम हकलाने वाले दूसरे लोगों को लेकर पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। मैंने जब आम समाज में हकलाहट को स्वीकार करना शुरू किया तो यह पाया कि मात्र 1 प्रतिशत या उससे भी कम लोग हकलाने वाले व्यक्ति को देखकर हंसते हैं। वास्तव में आज सूचना क्रांति के इस युग ने लोगों तक सूचनाएं पहुंचाकर उन्हें विभिन्न विषयों के बारे में सही जानकारी प्रदान की है, और हकलाहट भी उनमें से एक है।
अक्टूबर 2013 में दिल्ली में नेशनल कांन्फ्रेन्स से लौटकर मैं और देहरादून के दो साथी एस.एल.पी. विजयकुमार जी और परमानन्द जी जब वापस जा रहे है थे तो टीसा का बैच देखकर एक पुलिस वाले ने हमसे आगे होकर हकलाहट पर बात की, इसके बाद मैटो स्टेशन पर हम लोगों ने 2 दो युवकों से हकलाहट के बारे में बातचीत की। इससे यह ज्ञात हुआ कि अधिकतर लोग हकलाहट के बारे में काफी हद तक सही जानते हैं। बस जरूरत इस बात की है कि हम लोग स्वयं आगे होकर बात करें।
अब मुझे हकलाहट होती है तो खुद पर गुस्सा नहीं आता। मैं अब हकलाहट को एकदम सहज रूप में लेने लगा हूं। अब फोन पर भी खुद आगे होकर बातचीत करता हूं।
एक दूसरा चमत्कार यह हुआ है कि पहले की अपेक्षा अधिक सामाजिक हो गया हूं। स्वयं लोगों से बातचीत करना, उनकी रूचियों का ध्यान रखना और तारीफ करना। इन सबने मेरे जीवन को बहुत आसान बना दिया है।
हकलाहट को स्वीकार करने से हकलाहट को बार-बार छिपाने की असफल कोशिश करने का प्रयास करना अब बंद कर दिया है। हकलाहट ने जीवन के कई नए और अच्छे पहलुओं के बारे में जानने और समझने का अवसर प्रदान किया है।
हां, मैं हकलाता हूं, मुझे बोलने में हकलाहट होती है, मैं कभी-कभी बोलते समय अटक जाता हूं, ये सभी वाक्य अगर हम अपने जीवन में उतार लें तो जीवन कितना आसान हो जाएगा। मैंने लोगों को हकलाने वाले लोगों के बारे में बहुत कुछ कहते सुना है, वास्तव में लोगों का काम है कहना। अगर आप हकलाते नहीं होते तो भी लोग आपकी कोई दूसरी कमी खोज ही लेते। जरा अपने स्कूल या कालेज के दिनों की याद करिए। हर टीचर का कोई एक विशेष नाम रखते थे। हिटलर, चश्मीस, मोटा और न जाने क्या-क्या।
फिर हकलाहट को लेकर इतना चिन्ता करना मेरे ख्याल में ठीक नहीं है। टीसा से जुड़ने के बाद मैंने हकलाहट के बोझ को अपने सिर से उतार दिया है। अब हकलाहट मेरे जीवन में कोई समस्या नहीं है। हकलाते हुए भी मेरा जीवन बहुत ही आसानी से चल रहा है। कोई रूकावट नहीं है। कोई नुकसान नहीं है।
हकलाहट को स्वीकार करने का मतलब ही यह है कि आपके जीवन में हकलाहट को लेकर दुःख, निराशा का भाव न हो। हकलाहट आपके जीवन में बाधा न हो। हां, नौकरी के मामले में जब आप किसी इंटरव्यू में जाएं तो हो सकता है कि आपको हकलाने के कारण सलेक्ट न किया जाए। लेकिन बार बार कोशिश करने से सफलता से मिलनी ही है।
हकलाहट को स्वीकार करने के बाद आप अपनी स्पीच पर वर्क सहजता के साथ कर पाएंगे। स्पीच तकनीक का इस्तेमाल करना आसान हो जाएगा।
इस प्रकार हकलाहट की स्वीकार्यता सही मायने में हमें आगे बढ़ने का मार्ग दिखाती है। भारत में, हकलाने वाले व्यक्तियों को सही राह दिखाने और सशक्तिकरण की दिशा में टीसा के माध्यम से जो भागीरथी प्रयास किए जा रहे हैं उससे सैकड़ों लोगों की जिन्दगी में एक नया सबेरा आया है, उनकी जिन्दगी रोशन हो गई है।
- अमितसिंह कुशवाह,
सतना, मध्यप्रदेश।
09300939758
5 comments:
nice post....thanks for motivate us again...amit sir
Very true. Inspiring!
अमित जी, हिंदी मे लिखने के लिये धन्यवाद ।
इस प्रेरणादायी पोस्ट के लिये साधुवाद ।
यह सत्य है कि हकलाहट को स्वीकार करते ही हम बेहतर संचार दक्षता पाने की दिशा में एक मजबूत और स्थायी कदम बढा देते हैं ।
आयुर्वेद के विशेषज्ञ बाणभट्ट जी कहते हैं - "शरीर के किसी भी भाग पर अनावश्यक दबाव पडते रहने से वह भाग रोग-ग्रस्त हो जाता है ।"
हकलाहट को ना स्वीकार कर ठीक बोलने के दबाव मे हम अपने मस्तिष्क और उसमे स्थित करोडो-अरबो (धागे से भी महीन) न्युरोन्स को कितना रोग-ग्रस्त कर डालते हैं , हम अपने चेहरे की मांसपेशियो पर कितना ज्यादा दबाव डालते हैं ।
वैज्ञानिक आधार -
आइंसटाइन का ऊर्जा-द्रव्यमान संबंध E=mc2 इस ब्रह्माण्ड मे ही नही, हमारे शरीर की हर कोशिका मे भी लागु होता है , हर कोशिका मे द्रव्यमान है तो कोशिका के ही एक हिस्से माइटोकॉंड्रिया मे ऊर्जा का संग्रह भी हो रहा है । और हम हकलाहट को स्वीकार नहीं कर अपने मन-मस्तिष्क को नकारात्मक ऊर्जा (शरम, घृणा, भय, अपराधबोध , ग्लानि ) से भर डालते है जो हमारी मस्तिष्क मे कोशिकाओं की माइटोकॉंड्रिया मे स्टोर होती जाती है और यही नकारात्मक ऊर्जा धीरे धीरे हमारी neurons की कोशिकाओं को क्षति पहुचाना शुरु कर देती है जिसका परिणाम होता है न्युरोन्स मे गिल्टी बनाना , ब्लाक block होना । और हमारा यदि एक न्युरोन भी ब्लाक होता है तो उससे जुडे 50,000 न्युरोन्स में भी संकेतों का , संवेदनाओं का संचरण रुक जाता है । Result disease
इसलिये बेहतर है हम खुलकर स्वीकार करें ।
:)very beautiful post Amitji
नमस्कार!
अमित जी आपकी लेखन प्रतिभा बहुत ही ससक्त है और आप हमेशा एक प्रेरणादायी संवाद लिखते है,इसके लिए मै आपको बहुत बहुत बधाई देता हु, और ये उम्मीद करता हु कि ये कार्य आगे भी जारी रखोगे।
धन्यवाद!
आनंद सिंह
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